________________ नवमः सर्गः भयकारणात् न, स्मरेण कामेन तानवात् कार्यात् कामकृत-कदर्थनातः इत्यर्थः भिया न, अर्थात् अहं कामेन भृशं कदर्थ्य इति माम् स्वकिंकरं कुविति नास्ति मेऽभिप्रायः / मम असवः प्राणाः तेषाम् व्ययेन त्यजनेनेत्यर्थः ते तुभ्यम् हितम् हितकरम् यदि स्यात् तदा तहि तव ते प्रेमणि माम् प्रति अद्य यावत् कृतेऽनुरागे शुद्धिः ऋण-शुद्धिः निर्यातनमिति यावत् तस्य लब्धये प्राप्त्यै ( 10 तत्पु० ) मदसुव्ययः स्यात् / माम् अवृत्वा देवतावरणे यदि त्वद्-वियोगात् मम प्राणाः गच्छन्ति, तहिं सहर्ष गच्छन्तु नाम / एतावन्तं कालं त्वया मयि कृतात् अनुरागात् स्वप्राणव्ययेनाहम् आनृण्यं गमिष्यामीति भावः // 135 // ___ व्याकरण-उदासितेन उत् + /आस् क्त ( कर्तरि ) मया का विशेषण अथवा क्त ( भावे, विशेष्य ) औदासीन्य से / उद्यसे वद् + लट् म० पु०, व को उ सम्प्रसारण ( कर्मवाच्य ) / तानवात् तनोः भाव इति तनु + अण् / ते हितयोग में च० / शुद्धिः लब्धये दोनों जगह क्तिन् ( भावे ) / ___ अनुवाद-"( दमयन्ती!) तुमसे जो मैं यह कह रहा हूँ ( कि सोचविचार कर वरण करो ) वह तटस्थ-रूप से ही ( कह रहा हूँ ) न कि देवताओं की डर से न वा ( अपनी) काम-जनित दुर्बलता से। यदि मेरे प्राण-नाश से तुम्हारी भलाई होती हो, तो तुम्हारे ( अब तक मुझ पर किये ) प्रेम से ऋणमुक्ति पाने के लिए ( मेरा प्राणनाश ) हो जावे // 135 // टिप्पणी-देव-वरण करने जा रही हो, तो तुमने मुझसे अब तक प्रेम करके मेरा जो उपकार किया है, उसका प्रत्युपकार मै प्राण-समर्पण के रूप में कर दूंगा अर्थात् तुम्हारे खातिर मैं प्राणों की बलि भी दे सकता हूं लेकिन होना तुम्हारा हित चाहिए / विद्याधर के शब्दों में-'अत्र छेकानुप्रासातिशयोक्त्युपमालंकारः। उन्होंने 'उदासितेनैव' में 'उदासितेनेव' पाठ देकर उपमा बनाई है। छेक 'नवान्न वा' में है / / 135 // इतीरितैर्नैषधसूनृतामृतैर्विदर्भजन्मा भृशमुल्ललास सा। ऋतोरधिश्रीः शिशिरानुजन्मनः पिकस्वरैदूरविकस्वरैयथा // 136 // अन्वयः-सा विदर्भजन्मा इति ईरितः नैषधसूनृतामृतः भृशम् उल्ललास यथा शिशिरानुजन्मनः ऋतोः अधिश्रीः दूरविकस्वरैः पिकस्वरैः ( उल्लसति ) / टीका-सा प्रसिद्धा विदर्भेभ्यः जन्म यस्याः तथाभूता ( ब० बी० ) वैदर्भो