________________ नवमः सर्गः ( न० तत्यु०) तस्य भस्मभिः भूतिभिः ( तृ० तत्पु० ) लान्छनस्य स्वगतकलंकस्य उन्मजाम् प्रोञ्छनम् निराकरणमित्यर्थः (10 तत्पु० ) मुधा वृर्थव वाञ्छति इच्छति, तावत्, अपि मदनभस्मभिः स्वलाञ्छनस्य प्रोञ्छने कृतेऽपि तव आस्यताम् मुखत्वम् (10 तत्पु०) त्वन्मुखसादृश्यमित्यर्थः यास्यति प्राप्स्यति किम् ? नैवेति काकुः / अयं भाव: निष्कलङ्कन नलमुखेन सादृश्यं प्राप्तुं चन्द्रो मां दग्ध्वा मच्छरीरभस्मना स्वकलङ्क परिमार्जयितुमिच्छति चेत् तर्हि व्यर्थोऽयं तस्य प्रयासः, यतः वध्वाः स्त्रियः वधेन मारणेन (10 तत्पु० ) पुनः मुहुः स कलङ्कितः कलङ्कयुक्त एव स्थास्यति, तस्मात् त्रिकालेऽपि चन्द्रः त्वदास्यसादृश्यं न लब्धुमलमिति भावः // 146 // व्याकरण-लाञ्छनम्/लाञ्छ् + ल्युट / उन्मजा उत् + मृज् + अ + टाप् / कलङ्कितः कलङ्कः सञ्जातोऽस्येति कलङ्क + इतन् / अनुवाद-“चन्द्रमा अपनी किरणों से खूब जलाये हुए मेरे शरीर की राख द्वारा (निज ) कलंक को ( रगड़ कर ) व्यथं ही मिटाना चाह रहा है। उतने से भी वह तुम्हारा मुख (-जैसा) नहीं बन सकता है। स्त्री-वध से वह कलंक वाला फिर बन जाएगा" // 146 // टिप्पणी-विरहिणी होने के कारण चन्द्रमा दमयन्ती को बुरी तरह सता रहा है, इस लिए फूक रहा है कि उसकी देहभस्म से रगड़कर वह अपने भीतर का कलंक मिटा देगा। दर्पण पर लगे दाग को लोग राख द्वारा मिटाते ही हैं कि वह स्वच्छ हो जाय। इससे चन्द्रका आशय यह निकला कि कलंक मिट जाने पर वह तुम्हारे चेहरे-जैसा निष्कलंक हो जाएगा और फिर उससे खूब टक्कर ले सकेगा लेकिन वह मूर्ख है, यह नहीं जानता कि मुझे फूक देने पर वह स्त्री-वध के कलङ्क से कलङ्कित हो फिर कलङ्कित का कलंकित ही रहजायगा / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं सम्भवतः इसलिए कि विभिन्न कलंको का अभेदाध्यवसाय हो रखा है। मल्लिनाथ विषमालंकार कह रहे हैं, क्योंकि दमयन्ती की देह-भस्म से चन्द्र निज कलङ्क पोछने जा रहा था कि इसका परिणाम उल्टा और कलंक लगजाना बताया गया है। गए थे अपना भला करने उल्टा बरा हो बैठा ('यद्वारब्धस्य वैफल्यमनार्यस्य च संभवः' (विषमः) / 'स्यता' स्यतिः 'वधू-वधे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 146 //