________________ 526 नैषधीयचरिते __ टिप्पणी-भारतीय संस्कृति के अनुसार स्त्रियों में यह बात पाई जाती है कि अपरिचित पुरुष के साथ लज्जा त्यागे कुछ बोल ही लेती हैं, लेकिन परिचित होते ही लज्जित हो उठती हैं। लज्जा पर महाह्रदत्व के आरोप में रूपक है / यद्यपि यहाँ 'ह्रियः' षष्ठी होने से उसका ह्रद से भेद बताया गया है और रूपक में उपमेय-उपमानों के तादात्म्य अर्थात् अभेद का नियम है, तथापि साहित्य में 'राहोः शिरः' की तरह भेद की कल्पना करके रूपक के ऐसे प्रयोग मिलते ही हैं। विद्याधर 'अत्र विरोधामासोऽलंकारः' कह रहे हैं / 'त्रपासखी' और 'अत्रपा' परस्पर विरुद्ध हैं / कालभेद से शीतोष्ण जल की तरह विरोध-परिहार हो जाता है। 'त्रपा, त्रपा' में छेक, 'मलं' 'नलम् ' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 141 // यदापवार्यापि न दातुमुत्तरं शशाक सख्याः श्रवसि प्रियस्य सा / विहस्य सख्येव तमब्रवीत्तदा ह्रियाऽधुना मौनधना भवत्प्रिया // 142 // अन्वयः-सा यदा अपवायं अपि सख्याः श्रवसि प्रियस्य उत्तरम् दातुम् न शशाक, तदा सखी एव विहस्य तम् अब्रवीत्-'भवत्प्रिया अधुना ह्रिया मौनधना ( अस्ति)"। ___टीका-सा वैदर्भी यदा यस्मिन् समये अपवार्य हस्तादिना व्यवधानं कृत्वा अपि सख्याः आल्याः श्रवसि कर्णे प्रियस्य प्रियाय उत्तरम् प्रतिवचनम् दातुम् वितरीतुं न शशाक न अशक्नोत् तदा तस्मिन् समये सखी एव विहस्य हासं कृत्वा तम् नलम् अववीत् अवोचत्-भवतः प्रिया प्रेयसी (ष० तत्पु०) अधुना इदानीम् ह्रिया लज्जया मौनम् तूष्णींभावः एव धनम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) मौनिनीत्यर्थः अस्तीति शेषः / / 142 // व्याकरण-अपवार्य अप + + णिच + ल्यप / श्रवस श्रयतेऽनेनेति Vश्रु+ असि ( करणे ) / ह्रिया इसके लिए पिछला श्लोक देखें। मौनम् मुनेर्भाव इति मुनि + अण् / प्रिया प्रीणातीति /पृ + क + टाप् / अनुवाद-वह ( दमयन्ती ) जब व्यवधान करके भी सखी के कान में प्रियतम के लिए इत्तर न दे सकी, तो सखी ही हंसकर उन्हें बोली- आपकी प्रियतमा अब लज्जा के मारे मौन की धनी बन गई है' // 142 / / टिप्पणी-“पहले आपके चित्र के आगे और आपके सामने भी यह बहुत