Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass

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Page 527
________________ '524 नैषधीयचरिते अन्वयः-मया एव नलम् सम्बोध्य यत् व्यलापि, तत् इदम् विमृश्य असौ मद्-बुद्धम् स्वम् आह-इति स्वभाषित क्रम (सन्) दमस्वसुः भ्रान्तिम् असात् / टीका - मया दमयन्त्या एव नलम् सम्बोध्य तस्य सम्बोधनं कृत्वा यत् व्यलापि ‘इयं न ते नैषध' इति ( 97 ) श्लोकाद् आरभ्य ‘ममादरीदं' (100) इति श्लोकपर्यन्तम् श्लोक-चतुष्टये विलापः कृतः तत् इदम् विलपितं विमृश्य विचार्य असौ नल: मया बुद्धं ज्ञातम् ( तृ० तत्पु० ) स्वम् आत्मानम् आह कथितवान् 'अयि प्रिये' (103) इत्यारम्य 'गिरानुकम्पस्व' (120) इति पर्यन्तम् प्रकाशितवानित्यर्थः दमयन्त्याश्वगतं 'स्वसम्बोधनपरकं मद्विलापमाकर्ण्य नलः 'अनयाऽहं ज्ञात' इति कृत्वा आत्मानं नलत्वेन प्राकटयदिति भावः, परमेष तस्या भ्रम एवासीत् इति स्वेन आत्मना भाषितः उक्तः ( तृ० तत्पु० ) स्वः स्वकीयः य उद्भ्रमः मोहः उन्माद इति यावत् ( उभयत्र कर्मधा० ) तस्य विभ्रमस्य विलसितस्य क्रमः परम्परा (उभयत्र 10 तत्पु० ) येन तथाभूतः (ब० वी० ) सन् असौ दमस्वसुः दमयन्त्याः भ्रान्तिम् भ्रमम् असात् खण्डितवानित्यर्थः / मया (नलेन ) यत् स्वनामप्रकाशनं कृतम् तत् 'मोहमहोमिनिमितं प्रकाशनम्' ( श्लोक० 127) आसीत् नतु, तत्त्वतः अनया अहं ज्ञातः, तत्किन्नाहं स्वनामास्याने प्रकाशयामीत्येत्कारणकृतम्' इति दमयन्त्या भ्रमगतः इति भावः / / 140 // व्याकरण-व्यलापि वि+Vलप + लुङ (भाव)। आह / + लट्, आह आदेश, यहाँ आसन्न भूत में वर्तमान है / असात् /षो ( अन्तकर्मणि )+ लुङ् / अनुवाद-"मैंने ही नल को संबोधित करके जो विलाप किया, मेरे इस ( विलाप ) पर विचार करके अपने को मेरे द्वारा जान लिया गया समझकर उन्होंने अपने ( नाम ) को प्रकट किया है'-दमयन्ती की इस भ्रान्ति को वे ( नल) उन्माद की चेष्टाओं के तांते के साथ स्वयं अपने कथन से दूर कर गए // 14 // टिप्पणी-भाव यह है कि निराश होकर दमयन्ती जब विलाप करने लगी थी, तो बीच-बीच में नल को इस प्रकार संबोधित करती जाती थी-'इयं न ते नैषध' ! इत्यादि / अपना सम्बोधन सुनकर नल ने समझा कि मेरे रूपादि से यह मुझे जान गई है कि दूत के छन्न में ये तो नल ही हैं, इसलिए अब क्यों न मै अपना दूत का मुखौटा उतार लूं और अपनी असलियत इसे बता दूं, इसलिए

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