________________ नैषधीयचरिते अन्वयः-हे दृशौ ! मृषा पातकिनः मनोरथाः पृथू अपि वाम् कथम् विप्रलेभिरे / प्रियश्रियः प्रेक्षण-घाति स्वम् पातकम् शतम् समाः अश्रुभिः क्षालयतम् / टोका-हे दृशौ नयने मृषा अनृताः पातकिनः पापिनश्च मनोरथाः अभिलाषाः पृथू विशाले अपि वाम् युवाम् कथम् केन प्रकारेण विप्रलेभिरे प्रतारितवन्तः प्रियस्य दर्शनं न कारयित्वा मिथ्याभूतेन पापिना मे मनोरथेन विशालयोरपि सत्योः युवयोः प्रवञ्चना कृतेति महदाश्चर्यमिति भावः / प्रियस्य नलस्य श्रियः सौन्दर्यस्य (10 तत्पु.) प्रेक्षणस्य दर्शनस्य घाति प्रतिबन्धकम् विघ्नकारकमिति यावत् स्वम् स्वीयम् पातकम् पापम् शतम् शतसंख्याकाः समाः वत्सरान्, शतशो वर्षाणि यावज्जीवमिति यावत् अश्रुभिः क्षालयतम् प्रमाजंयतम्. हे दृशौ ! युवाभ्यां यत् प्रियतमस्य दर्शनं न कृतमित्यनेनानुमीयते युवाभ्यां पूर्वजन्मनि पापं कृत. मस्ति, तस्मात् अश्रुजलेन स्वपापप्रक्षालनं क्रियताम्, प्रियस्य दर्शनं न भवितेति युवयोः कृते जीवन-पर्यन्तं रोदनमेव प्राप्तमस्तीति भावः // 91 // ___ व्याकरण-दृक पश्यतीति/दृश + क्विप् ( कर्तरि ) पातकी पातकमस्यास्तीति पातक + इन् (मतुबर्थ ) / पातकम् पातयतीति पत् + णिच + ण्वल / पृथु प्रथते इति प्रथ + उ, संप्रसारण / विप्रलेभिरे वि + प्र + Vलभ् + लिट ब० व० / प्रिय प्रीणातीति/प्री + क / घातिन् घातयतीति हन् + णिच् + णिन् / प्रियश्रियः प्रेक्षणघाति यहाँ 'प्रेक्षण' का 'श्रियः' से सम्बन्ध होने के कारण 'घाति' के साथ समास नहीं होना चाहिए था ( सापेक्षमसमर्थवत् ) / शतम् समाः कालात्यन्त-संयोग में द्वि०। अनुवाद-"ओ आंखो ! झूठा और पापी मनोरथ ( तुम्हारे ) विशाल होते हुए भी तुम्हें कैसे धोखा दे बैठा ? प्रिय का सौन्दर्य देखने में बाधक बने हुए अपन सैकड़ों पापों को आँसुओं से धो डालो" / / 91 // टिप्पणी-ध्यान रहे कि विशाल आंखें सौन्दर्य की द्योतक होती हैं। छोटों को कोई धोखा देवे, तो देवे, परन्तु इतनी बड़ी आँखें भी मनोरथ के हाथों धोखा खा गई—बड़ी विचित्र बात है। नल को देखने का मनोरथ यहां झूठा और पापी माना गया है, क्योंकि वह दर्शन न दिलाता हुआ आंखों को यों ही टरकाये जा रहा है। धोखा देना पाप होता है। आँखों ने भी पूर्वजन्म मे कोई पाप कर रखा होगा, जो दर्शन करने में बाधक बना हुआ है, अतः प्रिय के