________________ 474 नैषधीयचरिते ___ व्याकरण--क्षण: यास्कानुसार 'प्रक्ष्णुतः कालः' / मृत्युः इसके लिए पीछे श्लो० 92 देखिए / कान्तः काम्यते इति/कम् + क्त (कर्मणि)। कायः चीयन्तेऽस्मिन् अस्थ्यादीनीति/चि +घञ् ( अधिकरणे ) / 'च, को क / Vवायुः वातीति /वा + उण, युक् का आगम। अनुवाद--"ये युग बीत रहे हैं, किन्तु ( मेरा ) यह ( एक ) क्षण नहीं बीतता। कितना झेलूंगी? मुझे मौत भी तो नहीं आती। वे प्रियतम स्पष्टतः मेरी अन्तरात्मा को नहीं छोड़ेंगे, मेरा मन उन्हें नहीं छोड़ेगा और मेरे प्राण मन को नहीं छोड़ेंगे // 94 // टिप्पणी-दमयन्ती यहाँ अपनी मृत्यु न होने का कारण बता रही है। वह अपने प्रियतम को,आत्मा समझ रही है / सच्चे प्रेम में एकात्म्यभाव स्वाभाविक ही है। जब तक आत्मा, मन और पाँच प्राणवायु शरीर से नहीं निकल जाते तब तक मृत्यु नहीं होती। मनसे यहाँ वेदान्तसंमत लिङ्गशरीर अथवा सूक्ष्म शरीर विवक्षित है। इसे 'पुर्यष्टक' भी बोलते हैं। इसका स्वरूप शास्त्र में इस प्रकार बताया गया है-"बुद्धीन्द्रियाणि खलु पञ्च तथा पराणि कर्मेन्द्रियाणि मन आदि चतुष्टयं च / प्राणादि-पञ्चकमथो वियवादिकच कामश्च कर्म च तमः पुनरष्टमी पूः // मृत्यु के समय आत्मा चला जाता है, उसके बाद मन अर्थात् लिङ्ग. शरीर जाता है, तब अन्त में षाटकौशिक भौतिक स्थूल शरीर समाप्त होता है। वेद में भी लिखा है-'तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनुत्क्रामन्ति, प्राण मुत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति'। इस मृत्यु प्रक्रिया में जब आत्म-भूत कान्त ही नहीं निकल रहा है, तो प्राण निकलें, तो कैसे निकलें / विद्याधर यहाँ 'अत्रापहनुति हेतु दीपकालङ्कारः' कह रहे हैं / 'काय' 'वाय' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास है // 94 // मदुग्रतापव्ययशक्तशीकरः सुरा:! स वः केन पपे कृपार्णवः / उदेति कोटिर्न मुदे मदुतमा किमाशु संकल्पकणश्रमेण वः // 95 // अन्वयः-हे सुराः / मदुन करः स वः कृपाणवः केन पपे ? वः संकल्पकणश्रमेण आशु मदुत्तमा ( स्त्रीणाम् ) कोटिः मुदे किम् न उदेति ? टीका--हे सुराः ! देवाः ! मम य उग्रतापः (10 तत्पु० ) उग्रः तीव: चासो तापः विरहजन्यः सन्तापः ( कर्मधा० ) तस्य व्यये नाशे (10 तत्पु० ) शक्तः समर्थः ( स० तत्पु० ) शीकरः विन्दुकणः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः