________________ नवमः सर्गः 489 अनुवाद-"( हे दमयन्ती ! ) मेरे मुकुट के रत्नों की पुष्पमंजरी-जैसी रोहिणी ( लाल रंग की ) किरणावली-रूपी रोहिणी ( तारा-विशेष) तुम्हारे इस स्वच्छ चरणनखरूपी चन्द्र की सेवा करे। ओ बिना कारण ही रुष्ट हो जाने वाली ! रोष को छोड़ दो छोड़ दो" // 107 // टिप्पणी-इस श्लोक में पिछले श्लोक का ही अर्थ कवि दोहरा रहा है / भेद यही है कि वहाँ सीधी भाषा में था, यहाँ आलंकारिक भाषा में है / रोहिणी तारा चन्द्र की पत्नी होती है, जो अपने पति चन्द्र की सेवा में लगी रहती है। रोहिणी के समान ही मेरी मुकुटरल किरणावली तुम्हारे चरण नख की सेवा करे, अर्थात् मेरा मुकुट तुम्हारे चरणों में गिरे। किरणावली पर रोहिणीत्वारोप और नख पर चन्द्रत्वारोप में रूपक है / रोहिणी में श्लेष है / किरणावली मञ्जरी में उपमा है। 'त्यज त्यज' और 'रोषणे रूषम्' में छेक, अन्य वृत्त्यनुप्रास है // 107 // तनोषि मानं मयि चेन्मनागपि त्वयि श्रये तद्बहुमानमानतः / विनम्य वक्रं यदि वर्तसे कियन्नमामि ते चण्डि ! तदा पदावधि // 108 / / अन्वयः-त्वम् मयि मनाक् अपि मानम् चेत् तनोषि, तत् आनतः ( सन् अहम् ) त्वयि बहुमानम् आश्रये, हे चण्डि ! वक्त्रम् कियत् विनम्य यदि वर्तसे, तदा ते पदावधि नमामि / टीका-त्वम् मयि माम् उद्दिश्य मनाक् ईषत् अपि मानम् प्रणयकोपम् चेत् यदि तनोषि प्रकुरुषे तत् तर्हि मानतः नम्रः सन् अहं त्वयि त्वाम् प्रति बहुम् च तम् मानम् सन्मानम् (कर्मधा० ) आषये कुर्वे, यदि त्वम् अल्पमपि मानं करोषि, तर्हि अहं ते मानापनोदनाय तव महासन्मानं करोमीत्यर्थः / हे चण्डि ! अतिकोपने ! वक्त्रम मुखम् कियत् किमपि यथा स्यात्तथा विनम्य विनमय्य यदि चेत् वर्तसे भवसि तवा तहिं ते तव पदम पादः अवधिः सीमा ( कर्मधा० ) यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात् तथा ( ब० वी० ) नमामि नम्रीभवामि तव पादयोः पतित्वा त्वत्कोपमपनेष्यामीति भावः // 108 // र व्याकरण-मानः मन् + घञ् (भावे) आनत: आ + /नम् + क्त ( कर्तरि ) / विनम्य यहाँ अन्तर्भावित णिच समझिए अर्थात् विनमय्य / चण्डिः चण्डते इतिvचण्ड् + अच् ( कर्तरि ) + डीप् सम्बो० /