________________ 494 नैषधीयचरिते खञ्जनसदृशनयनयुगलेन मामवलोकयेत्यर्थः, ते तव मुखं वदनं विकासि विकसितम् पके रोहतीति तथोक्तम् ( अलुक् स० ) कमलम् अस्तु भवतु, खेदं त्यक्त्वा प्रसन्न मुखी सती स्मित-पूर्व सकटाक्षश्च विलोक्य मामानन्दयेति भावः // 112 // ‘याकरण-प्रावृषम् प्र= प्रकर्षण आ = समन्तात् वर्षतीति प्र + आ + Vवृष् + क्विप् ( कर्तरि ) / कौमुदी कुम् (पृथिवीम् ) मोदते ( मोदयति ) इति कु + /मुद् + क, कुमुदः, कुमुद एवेति कुमुद + अण् ( स्वार्थे ) + ङीप् / विषाणय वि + Vश्रण + लोट् / द्वयो इसके लिए पीछे श्लो० 106 देखिए। इतः सप्तम्यर्थ में तसिल् / पङ्करहम् पङ्क रुह् + क / अनुवाद-"तुम आंसुओं के बूंदों की वरसात समाप्त करो; मुसकान से चाँदनी का आनन्द दो; दो नयन-रूप खञ्जनों का जोड़ा यहाँ ( मुझ पर ) क्रीड़ा करे तथा ) तुम्हारा मुख खिला हुआ कमल बन जाय // 112 // टिप्पणी-वर्षा ऋतु के समाप्त हो जाने के बाद निर्मल आकाश में चांदनी आनन्द प्रदान करती ही है, साथ ही खञ्जनों के जोड़े खेलने लगते हैं—यह प्रकृति का नियम है / विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति और रूपक कह रहे हैं। अश्रुप्रवाह और प्रावृट् तथा स्मित जनित मोद और कौमुदी-जनित मोद में अभेदाध्यवय हो रखा है / 'कौमुदीमुदः' कौमुदीवत् मुदः यों अतिशयोक्ति के स्थान में लुसोपमा मान सकते हैं / नयनों पर खञ्जनद्वयी का आरोप तथा मुख पर पङ्के. रुहत्वारोप होने से रूाक ठीक ही है / 'मुदी-मुदः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 112 // सुधारसोद्वेलनकेलिमक्षरस्रजा सृजान्तर्मम कर्णकूपयोः / दृशौ मदीये मदिराक्षि ! कारय स्मितश्रिया पायसपारणाविधिम् // 113 // अन्वय-( हे भैमि ! ) अक्षर-स्रजा मम कर्ण-कूपयोः अन्तः सुधाकेलिम् सृज / हे मदिराक्षि ! मदो दृशौ स्मित-श्रिया पायस-पारणा-विधिम् कारय / टोका-( हे भैमि ! ) अक्षराणाम् वर्णानाम् सजा मालया शब्दावल्येत्यर्थः मुखेन वाणीमुच्चार्येति यावत् (10 तत्पु० ) मम कर्णौ श्रोत्रे एव कूपो तयोः ( 10 तत्पु० ) अन्त: मध्ये सुधा अमृतं चासो रसः ( कर्मधा० ) तस्य उद्वेलना वेलोल्लचिनी निर्मदित्यर्थः (10 तत्पु० ) या केलि: क्रीडा ( कर्मधा० ) ताम् सृज कुरु, किमप्यालपन्ती मम कर्ण-कुहरे वागमृतेन पूरयेति भावः / मदिरे मद