________________ नवमः सर्गः 511 अतिमा निराशताम्-उपसर्गों का यह नियम है कि वे धातुओं के साथ अथवा समास में अव्यवहित-पूर्व आया करते हैं, अतः यहाँ 'अतिनिराशताम्' होना चाहिए था न कि 'अति मा निराशताम्' / नारायण ने भी यह शंका उठाई है और यह समाधान किया है-'महाकविप्रयोगाद् व्यवहितानामपि प्रयोगः साधुः तथा इसके और भी उदाहरण दिये हैं जैसे-'आविश्चक्षुषोऽभवदसाविव रागः,' आदि / दूसरा समाधान यह है कि 'अन्तिम' शब्द को सम्बोधन मान लें अर्थात् अतिशयिता मा = शोभा, राज्यलक्ष्मीः वा यस्य तत्सम्बुद्धी हे अति सुन्दर नल !, 'एनाम् अनिराशताम् आशायुक्तत्वं नय इसे आशा बंधाओ अथवा 'अतिमा' (अतिक्रान्ता माम् ) को इयम् का विशेषण मानकर यह अर्थ कर लें-यह सौन्दर्य में लक्ष्मी को मात किये हुए है / इसे निराश मत करो। विहाता वि+/हा + लुट् / अनुवाद-वह ( हंस ) अपने पंखों की फड़फड़ाहट पर ऊपर देख रहे नल को यह कहते हुए कि “यह तो वही पक्षी (हंस ) है" बोला-"निर्दयी ! इस ( दमयन्ती ) को अधिक निराश मत करो। इससे आगे यह प्राणों को ही छोड़ देगी" // 128 // टिप्पणी-हंस का भाव यह है कि तुम अपना नाम प्रकट कर देने से अपने को कोस रहे हो कि मैंने यह क्या गलती कर दी है। इससे यह बेचारी समझने लग जाएगी कि तुम्हारा इस पर अनुराग नहीं है / अतः जो निन्दा तुमने अपनी कर दी है वह कर दी; अब और अधिक करोगे, तो यह नैराश्यातिशय में भर जाएगी। इसके मरने पर तुम्हें स्त्री-वध का महापाप लग जाएगा। 'पक्ष' 'पक्षी' में छेक, 'परं परम्' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 128 // सुरेषु पश्यन्निजसापराधतामियत्प्रयस्यापि तदर्थसिद्धये / न कूटसाक्षीभवनोचितो भवान्सतां हि चेतःशुचितात्मसाक्षिका // 129 // अन्वयः-(हे नल ! ) भवान् तदर्थ-सिद्धये इयत् प्रयस्य अपि सुरेषु निजसापराधताम् पश्यन् कूटसाक्षीभवनोचितः न ( भवति ) / हि सताम् चेतःशुचिता आत्मसाक्षिका ( भवति ) / टोका-(हे नल ! ) भवान् त्वम् तेषाम् सुराणाम् अर्थी प्रयोजनम्, कार्यमिति यावत् तस्य सिहये सफलत्वेन सम्पादनाय ( उभयत्र 10 तत्पु० ) इयत् एतावत् अधिकं यथा स्यात्तथा प्रयस्य प्रयासं कृत्वा अपि सुरेषु देवानां विषये