Book Title: Naishadhiya Charitam 03
Author(s): Mohandev Pant
Publisher: Motilal Banarsidass
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________________ नवमः सर्गः 513 कर रही है, अतः अर्थान्तरन्यास है। 'भव' 'भवा' तथा 'साक्षी' 'सांक्षि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 129 // इतीरिणापृच्छय नलं विदर्भजामपि प्रयातेन खगेन सान्त्वितः / मृदुभाष भगिनी दमस्य स प्रणम्य चित्तेन हरित्पतीन्नृपः // 130 // अन्वयः-इति ईरिणा नलम् विदर्भजाम् अपि आपृच्छय प्रयातेन खगेन सान्वितः स नृपः चित्तेन हरित्-पतीन् प्रणम्य मृदुः ( सन् ) दमस्य भगिनीम् बभाषे। टीका-इति पूर्वोक्तम् ईरयति कथयताति तथोक्तेन, नलम् विदर्भजाम् वैदीम् चापि आपृच्छच आमन्त्र्य प्रयातेन गतेन खगेन पक्षिणा हंसेन सान्वितः सान्त्वनाम् प्रापितः स नृपः राजा नलः चित्तेन मनसा हरिताम् दिशानाम् ( ‘आशाश्च हरितश्च ताः' इत्यमरः ) पतीन् स्वामिनः दिक्पालकान् इन्द्रादान् (10 तत्पु० ) प्रणम्य नमस्कृत्य मृदुः कोमलः दयालुः इति यावत् सन् दमस्य भगिनीम स्वसारम् दमयन्तीमित्यर्थः बभाषे अभाषत // 130 // व्याकरण-०ईरिणाVईर् + णिन् / विदर्भजाम् विदर्भेभ्यः जातेति विदर्भ +V जन् + ड + टाप् / खगेन खे ( आकाशे ) गच्छतीति ख + V गम् + ड / सान्त्वितः सान्त्व + क्त ( कर्मणि ) / अनुवाद - इस प्रकार कहने वाले ( तथा ) नल और दमयन्ती से भी विदा लेकर गये हुए पक्षी ( हंस ) से सान्त्वना प्राप्त किये वे राजा ( नल ) मन ही मन दिक्पालों को प्रणाम करके दमयन्तो को बोले // 130 // टिप्पणो–'तेन' 'खगेन' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 130 // ददेऽपि तुभ्यं कियती: कदर्थनाः सुरेष रागप्रसवावकेशिनीः / अदम्भदूत्येन भजन्तु वा दयां दिशन्तु वा दण्डममी ममागसा // 131 // अन्वय-(हे भैमि ! ) तुभ्यम् सुरेषु राग-प्रसवावकेशिनीः कियतीः कदर्थनाः ददे अपि / अमी अदम्भ-दूत्येन दयां वा भजन्तु, मम आगसाम् दण्डम् वा दिशन्तु / . टोका-(हे भैमि ! ) तुभ्यम् सुरेषु इन्द्रादिदेवान प्रति रागस्य अनुरागस्य

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