________________ 514 नैषधीयचरिते प्रसव: उत्पत्तिः (10 तत्पु० ) तस्मिन् अवकेशिनीः वन्ध्याः निष्फला इति यावत् ( 'वन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः ) कियती: कियत्संख्यकाः कदर्थनाः पीडाः ददे ददामि अपीति गर्हायाम् ( 'अपि सम्भावना-प्रश्न-शङ्का-गहनिसमुच्चये' इति विश्वः ) देवेषु स्वरागोत्पादनाय तुभ्यं कियद् बहु कष्टं ददानीति बहुनिन्दनीयं मे नाधिकं कथयिष्यामीति भावः / अमी एते देवताः न दम्भः कपटो यस्मिन् तथाभूतेन ( नन ब० वी० ) ( कपटोऽस्त्री व्याज-दम्भः-इत्यमरः ) इत्येन दूतकर्मणा दयाम् मयि कृपाम् वा भजन्तु कुर्वन्त्वित्यर्थः मम आगसाम् अपराधानाम् दण्ड शासनं वा दिशन्तु ददतु / मया निष्कपटभावेन दौत्य-कर्तव्यमनुष्ठितम् किन्तु सफलता नोपलब्धति देवा माम् अनुगृह्णन्ति चेत् अनुगृह्णन्तु नाम, दण्डयन्ति चेत् दण्डयन्तु नाम वा परम् इदानीं त्वां न कदर्थयिष्यामीति भावः // 131 // व्याकरण-कवर्थनाः कुत्सितोऽर्थः कदर्थः कदथं करोतीति कदर्थ + णिच कदर्थयति ( नामधा० ) कदर्थ्यते इति/कदर्थ + युच् ( भावे ) + यु को अन + टाप् / दूत्येन इसके सम्बन्ध में पीछे श्लो० 123 देखिए। अनुवाद-"( दमयन्ती ! ) देवताओं के प्रति अनुराग उत्पन्न करने में बेकार सिद्ध हुई कितनी पीड़ायें मैं तुम्हें दे रहा हूँ—यह कितनी बुरी बात है / ये ( देवता ) मेरे निष्कपट दौत्य से मुझ पर कृपा करते हैं, तो करें अथवा मेरे अपराधों का मुझे दण्ड देते हैं, तो देवें (किन्तु अब मैं उनकी तरफ से तुम्हें तंग नहीं करूंगा)" // 131 / / टिप्पणी-अब नल को बड़ा दुःख हो रहा है कि बार-बार मैं इस बेचारी को तंग कर रहा हूँ कि तुम देवताओं को ही वरो, नल को नहीं, जब कि यह पर्वत की तरह अपने निश्चय में अडिग है। नल को विश्वास हो गया कि (कालिदास के शब्दों में )-क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत्' / अतः नल के मन में अब परिवर्तन आ गया है। वे दमयन्ती के खातिर सब कुछ सहने को तय्यार हो गए हैं। विद्याधर के शब्दों में 'अत्रातिशयोक्त्यलंकारः' जो हम नहीं समझ रहे हैं। सम्भवतः वे रागप्रसव के प्रयत्नों का अवकेशी ( फलरहित वृक्षों ) के साथ अभेदाध्यवसाय मान रहे हों, क्योंकि अवकेशी शब्द को वे विशेषण नहीं, विशेष्य समझ रहे हैं यद्यपि यह विशेषण भी होता है,