________________ नवमः सर्गः व्यर्थीभूत इति भावः / देवस्य नियतेः विधातुरित्यर्थः स्वरसात् स्वेच्छात: (10 तत्पु० ) स्वः स्वकीयश्चासो रसः ( कर्मधा० ) विनश्वरम् विनाशिनम् वस्त अर्थम् सुराणाम् देवानाम् ईश: स्वामी इन्द्र इत्यर्थः (10 तत्पु० ) अफि प्रतिकर्तुम् प्रतिविधातुम् अन्यथयितुमिति यावत् न ईश्वरः समर्थः अस्तीति शेषः / विधातुरिच्छायाः नास्ति कोऽपि प्रतीकार इति भावः // 126 // व्याकरण-श्रम: श्रम्यते इति श्रम् + घञ् ( भावे ) वृद्धयभाव / चेतना चेत्यते इति/चित् + णिच् + युच् ( भावे ) यु को अन + टाप् / फली फलमस्यास्तीति फल + इन् ( मतुबर्थ ) / बलीयसा अतिशयेन बली इति बल + इन् (मतुबर्थ ) + ईयसुन् / वेघसा विदधाति ( जगत् ) इति वि + Vधा + असुन्, इ को एत्व / विनश्वरम् विनश्यतीति वि + नश् + वरच् / ईश्वरः विनश्वरवत् / अनुवाद-"इस चेतना से ( कि मैं दूत हूँ ) मेरा परिश्रम सफल हो रहा था, और वही (चेतना देखो तो) अतिप्रबल विधाता ने नष्ट कर दी। विधाता की स्वेच्छा से जिस वस्तु का नाश होना होता है उसका प्रतीकार इन्द्र तक भी नहीं कर सकता है" / / 126 / / टिप्पणी-मैंने जान-बूझकर अपना नाम नहीं बताया है, उन्माद में माकर बताया है, अतः मैं निर्दोष हूँ। यहाँ पूर्वार्ध-गत विशेष बात का उत्तरार्ध-गत सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से अर्थान्तरन्यास है। अपि शब्द से औरों की तो बात ही क्या-इस अर्थ के आ पड़ने से अर्थापत्ति है / 'नयानया' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यहाँ 'वेधस्' से निर्देश के बाद प्रतिनिर्देश 'वेधस' से ही होना चाहिए था, न कि 'दैव' से निर्देश-प्रतिनिर्देश-भाव भंग होने से यहां अक्रमता दोष है // 126 // इति स्वयं मोहमहोर्मिनिर्मितं प्रकाशनं शोचति नैषधे निजम् / तथाव्यथामग्नतद्दिधीर्षया दयालुरागाल्लघु हेमहंसराट् // 127 // अन्वयः इति नैषधे स्वयम् मोहमहोमि-निर्मितम् निजम् प्रकाशनम् शोचति (सति) दयालु: हेम-हंसराट् तथा 'धीर्षया लघु आगात् / ___टोका-इति एवं प्रकारेण नैषधे निषधाधिपती नले स्वयम् आत्मनैव मोहस्य भ्रमस्य महोमिणा (10 तत्पु० ) महता मिणा वीच्या निर्मितम् कृतम् उन्मादजनितमित्यर्थः (तृ० तत्पु०) निजम् स्वकीयम् प्रकाशनम् प्रकटनम् शोचति