________________ नवमः सर्गः 497 व्याकरण-आशुगः आशु गच्छतीति आशु + गम् + उ। कसना/वञ्च + युच, यु को अन + टाप् / त्वन्मय-युष्मद् + मयट ( स्वरूपार्थे ) युष्मद् को त्वदादेश। अनुवाद-"ओ कामदेव के बाणों की वञ्चना ( की विद्या) का अध्ययन की हुई दमयन्ती ! मेरे मनके भीतर स्थित तुम यदि बाहर (भी) मेरे वक्ष पर आ जाओ, तुम्हारे ही रूप में बने संपुट के भीतर प्रवेश करके मेरा हृदय काम के बाणों से नहीं डरेगा" // 115 // टिप्पणी-काम-बाण की वञ्चना के अध्ययन के सम्बन्ध में नारायण के अनुसार 'कामपीडाया अदर्शनात्' एवं मल्लिनाथ के अचूभार 'प्रायेण मनस्विनी लज्जावशंवदतया मदनवञ्चनताच्छील्यादित्थं संबोध्यते' / संपुटे-सभी तरफ से आवृत खाली खोखले को संपुट कहते हैं जैसे पेटी, पिटारी, सन्दूक, आदि। दमयन्ती हृदय में पहले से स्थित है ही, यदि बाहर से भी वक्ष पर स्थित हो जाएगी तो भीतरी और बाहरी-दोनों दमयन्तियों के बीच मल का हृदय सन्दूक के भीतर-जैसे बन्द हो जाएगा। फिर काम के बाण हृदय को कैसे लग सकते हैं। नल के कहने का भाव यह है कि ओ दमयन्ती ! भीतर तो मन में तुम भावात्मक रूप में कभी से बसी हुई हो ही। अगर बाहर भी शारीरिकरूप में तुम मेरा आलिंगन कर देती हो, तो मेरा सारा कामज्वर शान्त हो जाएगा। विद्याधर के अनुसार 'अत्रातिशयोक्तिरलंकारः। बाह्य सम्बन्ध के अभाव में चेत् शब्द के बल से सम्बन्ध की स्थापना की कल्पना की जा रही है। 'त्वम्' पर संपुटत्वारोप में रूपक भी हो सकता है / 'शुग' 'शुगे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 115 // परिष्वजस्वानवकाशबाणता स्मरस्य लग्ने हृदयद्वयेऽस्तु नौ। दृढा मम त्वत्कुचयोः कठोरयोरुरस्तटीयं परिचारिकोचिता // 116 // अन्वयः-(हे भैमि ! ) परिष्वजस्व / लग्ने नौ हृदय-द्वये स्मरस्य अनवकाशवाणता अस्तु / मम दृढा इयम् उरस्तटी कठोरयोः त्वत्कुचयोः परिचारिका उचिता। टीका-(हे भैमि ! ) परिष्वजस्व त्वम् माम् आलिङ्ग। लग्ने परस्पर दृढसम्मिलिते नौ आवयोः हृवषयोः इये युगले (10 तत्सु० ) स्मरस्य कामस्य न