________________ 504 नैषधीयचरिते प्रकृतिम् सत्त्वरजस्तमस्साम्यावस्थारूपाम् प्रपन्नाम् प्र= प्रकर्षेण पन्नाम् पृथग्भूताम् विलोक्य ज्ञात्वा गिरः 'अहम् तत्तज्जन्मनि अमुकामुकः आसम् इत्यात्मकानि वाक्यानि सृजति प्रयोगे आनयति // 121 // ___ व्याकरण--प्रबोषः प्रबुध्यते इति प्र+Vबुध + घञ् ( भावे ) / प्रपन्नाम् प्र + /पद् + क्त ( कर्तरि ) / गिरः गीर्यते इति गृ + क्विप् ( भावे ) उपधा को इत्व / अनवाद--तदनन्तर होश में आये हुए नल जान गए कि मैं तो अपने आपको प्रकट कर बैठा ( कि मैं नल हूँ ) तथा उस ( दमयन्ती ) को ठीकठाक देखकर ( दूतत्व के पुराने ) संस्कार जाग जाने से इस तरह वचन बोल पड़े जैसे कि योगी तत्त्व-ज्ञान प्राप्त किये हुए अपने को स्वप्रकाश ब्रह्मरूप जान लेता है तथा (पुराने जन्म-जन्मान्तरों के ) संस्कार जाग जाने से प्रकृति-संसारी मायाको बिलकुल भिन्न समझकर वचन बोल पड़ता है // 121 // टिप्पणी--उन्माद अथवा म ह की अवस्था हटते ही नल को अपनी भूल अनुभव होने लगी कि मैं तो दमयन्ती को अपनी असलियत कह बैठा हूँ कि मैं नल हूँ। इसका उन्हें दुःख हुआ। उन्हें फिर दूतत्व की याद आ गई, अब वे पश्चा. त्ताप के शब्द कहने लगे। इस बात को तुलना कवि योगी के साथ कर रहा है। योगी को भी मोहात्मक अथवा स्वप्निल संसार में गुरुपदेश एवं श्रवण-मनन-निदिध्यासनों से अपनी असलियत का ज्ञान हो जाता है कि 'अरे ! मैं तो ब्रह्म हूँ। किन्तु पूर्वजन्मों के संस्कार जागृत हो जाने से उसे भी फिर जीवन्मुक्तावस्था में अपने जन्मान्तरों की याद आ जाती है और कहने लगता है "अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं कक्षीवां ऋषिरस्मि विप्रः / अह कुत्समार्जुनेयं नृज्येऽहं कविरुशना पश्यतामा"N इत्यादि / वामदेव ऋषि भी ऐसा कहते थे इस तरह यहाँ उपमा है, जो श्लेषानुप्राणित है / 'बोध' 'बुध्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 121 // अये ! मयात्मा किमनिहनुतीकृतः किमत्र मन्ता स तु मां शतक्रतुः / पुरः स्वभक्तयाथ नमन्हियाविलो विलोकिताहे न तदिङ्गितान्यपि // 122 // अन्वयः-"अये ! मया आत्मा किम् अनिनुतीकृतः ? अत्र स शतक्रतुः तु माम् किम् मन्ता? पुरः स्वभक्त्या नमन अयं ह्रिया आविल: ( सन् ) तदिङ्गितानि अपि न विलोकिताहे /