________________ नवमः सर्गः 481 याचकों के कल्पवृक्ष ( नल ! ) मैं कुछ प्रार्थना करती हूँ ( और वह यह कि ) हृदय के फट जाने से बने हुए ( निर्गमन ) मार्न में पहुंचकर (चले जाते हुए) पापी प्राणों के साथ-साथ प्राण-तुल्य वह ( तुम भी) न चले जाना" // 100 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि निर्गमन-मार्ग प्राप्त करके प्राणों के साथ प्राग-सम तुम भी कहीं न चल बैठना, हृदय से ही चिपके रहना जिससे कि अगले जन्म में मैं तुम्हें प्राप्त कर सकूँ। मरते समय मनुष्य मन में जिस भाव या वस्तु को रखकर प्राण त्यागता है, अगले जन्म में वह उसे प्राप्त कर लेता है। यह बात गीताकार ने भी स्पष्ट कर रखी है-'यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजन्त्यन्ते कलेवरम् तं तमेवेति कौन्तेय ! सवा तद्भाव-भावितः // (86) / विद्याधर के अनुसार 'अथिकल्पद्रुम' में रूपक है, किन्तु हमारे विचार से विषयभूत नल के निगीर्ण होने से अभेदातिशयोक्ति होनी चाहिए / 'दरी' 'दरी' में यमक, 'दथि' 'दर्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / 'समे, समः, समं' में आवृत्ति एक से अधिक वार है, अतः वृत्त्यनुप्रास ही है, छेक नहीं // 100 // इति प्रियाकाकुभिरुन्मिशन्भृशं दिगीशदूत्येन हृदि स्थिरीकृतः / नृपं स योगेऽपि वियोगमन्मथः क्षणं तमुभ्रान्तमजीजनत्पुना // 101 // __ अन्वयः-दिगीश-दूत्येन हृदि स्थिरीकृतः स वियोग-मन्मथः प्रिया-काकुभिः उन्मिषन् तम् नृपम् योगे ( सति) अपि क्षणम् पुनः भृशम् उद्भ्रान्तम् अजीजनत् / ___टीका-विशाम् दिशानाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयो देवाः तेषां दूत्येन सन्देशहारकत्वेन ( उभयत्र 10 तत्पु० ) हृदि हृदये अस्थिरः स्थिरः सम्पद्यमानः कृत इति स्थिरीकृतः दृढीकृतः एतावत्समयपर्यन्तं निरुद्ध इति यावत् स पियोगरूपः मन्मथः कामः विप्रलम्भशृङ्गार इत्यर्थः (कमंषा०) प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्या काकुभिः दीनता-भरिताभिः उक्तिभिः (10 तत्पु० ) उन्मिषन् उद्बुद्धः सन् तम् नृपम् राजानम् नलम् योगे संयोग-शृङ्गारे स्वसन्निधाने इत्यर्थः सत्यपि क्षणम् मुहूर्तम् पुनः भृशम् अतितराम् उद्भ्रान्तम अतिशयेन भ्रान्तचित्तम् उन्मादगतमिति यावत् अजीजनत् चकार वियुक्ता प्रिया साम्प्रतं नलस्य सामीप्ये एव वर्तते स्म तथापि तद्वियोगेन पुनरपि जातोन्मादो नलः प्रलपितुमारब्ध इति भावः // 101 // व्याकरण-ईशः ईष्टे इति/ईश क। दूत्येन दूतस्य भावः कम वा इति दूत + यत् / यद्यपि यह वैदिक शब्द है तथापि कवि लोग लोक में भी इसका