________________ नैषधीयचरिते दृष्टिगोचर नहीं है क्या ? अवश्य दृष्टिगोचर है, किन्तु हमारे विचार से इस तरह विधिपरक लेने से श्लोक के उत्तराध में 'जो हंस तुम्हारे पास मेरी यातना को पहुंचाता" यह बात नहीं बनती है, क्योंकि यातना जब तुम जान ही रहे हो, तो हंस द्वारा पहुंचाये जाने का प्रश्न ही नहीं उठता है / इसलिए इसे निषेध. परक लेना ही उपयुक्त है। तुम यातना नहीं जान रहे हो क्योंकि तुम सुदूर 'निषध देश में हो। इसी तरह अगले श्लोक की भी उपपत्ति बन जाती है / इसलिए यातना जताने हेतु हंस के माध्यम की आवश्यकता पड़नी ठीक है। 'नस्य' 'नस्य' में यमक "ह्रदे ह्रदे' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 97 // ममापि किं नो दयसे दयाधन ! त्वदघ्रिमग्नं यदि वेत्थ मे मनः / निमज्जयन्तं तमसे पराशयं विधिस्तु वाच्यः क्व तवागसः कथा ? // 98 // अन्वयः-हे दयाधन ! ( त्वम् ) मे मनः त्वदध्रिमग्नम् यदि वेत्थ, ( तर्हि ) मम अपि किम् नो दयसे ? तु पराशयम् संतमसे निमज्जयन विधि: वाच्यः; तव आगसः कथा क्व ? टोका-हे दया कृपा एव धनम् ( कर्मधा० ) यस्य तत्सम्बुद्धी (ब० वी०) हे कृपानिधे ! इत्यर्थः त्वम् मे मम मनः हृदयम् तव अघ्री चरणी (10 तत्पु० ) तयोः मग्नम् बुडितम् ( स० तत्पु० ) त्वच्चरण-परायणमित्यर्थः यदि चेत् वेत्थ वेरिस, तर्हि मम मदुपरि अपि किम् कस्मात् नो न व्यसे दयां करोषि ? तु किन्तु परेषाम् अन्येषां जनानाम् आशयम् मनः (10 तत्पु० ) संतमसे संततं तमः तस्मिन् (प्रादिस० ) घनान्धकारे अज्ञाने इत्यर्थः निमज्जयन् ब्रुडयन् 'पातयन्निति यावत् विधिः विधाता वाच्यः उपालब्धव्यः / विधिः लोकानां मनो यन्मोहान्धकारे पातयति, तत्र विधिरेव दोष-पात्रम् नतुं लोका इति भावः / तव ते आगसः अपराधस्य कथा वार्ता क्व कुत्र? न वागीति काकुः / त्वं मे यातनां न जानासीत्यत्र नत्वमपराध्यसि' विधातवात्रापराध्यतीतिभावः // 98 // व्याकरण-या /दय + अङ्ग ( भावे ) + टाप् / वेत्थ /विद् + लट सिप, सिप को विकल्प से थल आदेश / मम वयसे-'अधीगर्थदयेशाम् कर्मणि' ( 2 / 352 ) से कर्म में षष्ठी। संतमसे सम्/तमस् + अच् ('अव-सम न्धेभ्यस्तमसः' (5 / 4 / 79) / बाच्यः वक्तुम् ( निन्दितुम् ) योग्य इति वच् + ण्यत् (कर्मणि ) / HTHHHHE