________________ 468 नैषधीयचरिते ___ अन्वयः हे भृशम् वियोगानलतप्यमान स्वान्त ! त्वम् यदि अयोमयम् ( असि, तहि ) किम् न विलीयसे? हे स्मरेषुभिः भेद्य ! ( त्वम् ) वज्रम् अपि न असि ( त्वम् ) कथम् न दीर्यसे ? ( इति ) न बवीषि? टीका-हे भृशम् अत्यन्तं यथा स्यात्तथा वियोगः प्रियतम-विरह एव अनल: अग्निः ( कर्मधा० ) तेन तप्यमान दह्यमान ! (तृ० तत्पु० ) स्वान्त ! हृदय ! ( 'स्वान्तं हृन्मानसं मनः इत्यमरः ) त्वम् यदि अयः एव अयोमयम् लोहमयम् असि तर्हि किं कस्मात् न विलीयसे न द्रवसि लोहस्य भृशं वह्नी दह्यमानस्य द्रवीभाव-दर्शनात् त्वं तु न द्रवसि तस्मात्त्वम् लोहादपि कठिनमसीति भावः / हे स्मरस्य कामस्य इषुभिः पुष्पमयैः बाणः भेद्य वेध्य ! स्वान्त ! त्वम् वज्रम्, अशनिः अपि न असि न वर्तसे, वज्रस्य पुष्पमयबाणैर्भेद्यत्वाभावात्, त्वम् कथम् न दीर्यसे स्फुटसि ? न ब्रवीषि न वदसि ? त्वया वदितव्यम् / व्याकरण-वियोगः वि + युज् + घञ् , तप्यमानः/तप् + शानच् ( कर्मणि ) / अयोमयम् अयसो विकार इति अयस् + मयट् / इषुः इष्यते (प्रक्षिप्यते ) इति/इष् + उ ( कर्मणि ) / भेद्य भेत्तु योग्य इति/भिद् + ण्यत् / दीयंसे/ + लट् ( कर्मकर्तरि ) / अनुवाद-"ओ वियोगाग्नि द्वारा खूब तपाये जाने वाले हृदय ! यदि तू लोहे का है, तो पिघल क्यों नहीं जा रहा है ? ओ कामदेव के ( पुष्परूप ) बाणों द्वारा बींधे जाने वाले ( हृदय )! तू वज्र का भी नहीं है। (फिर ) तू. फट क्यों नहीं जा रहा है / नहीं बोलता ?" // 89 / / टिप्पणी-यहाँ हृदय के सम्बन्ध में पहले संशय उठता है कि यह कहीं होने का संशय मिट जाता है फिर वज्र का बना हुआ होने का संशय उठता है, किन्तु वह भी मिट जाता है क्योंकि वज्र का बना होता, तो उसे फूलों से नहीं बींधा जा सकता था, इसलिए पता नहीं हृदय किस तत्त्व का बना हुआ है। इसः प्रकार यहाँ निश्चय-गर्भ संदेहालंकार शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / / 89 // विलम्बसे जीवित ! कि द्रव द्रतं ज्वलत्यदस्ते हृदयं निकेतनम् / जहासि नाद्यापि मृषा सुखासिकामपूर्वमालस्यमिदं तवेदृशम् // 10 // अन्वयः-हे जीवित ! किम् विलम्बसे ? द्रुतम् द्रव / अदः ते निकेतनम्