________________ नवमः सर्गः दर्शन न मिलने से आंखों को अब जीवन-भर आँसू बहाना अर्थात् रोना ही बदा है। यहाँ आँखों और मनोरथ पर चेतन व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति है / 'पातकि,' 'पातक' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 91 // प्रिय न मृत्यं न लभे त्वदीप्सितं तदेव न स्यान्मन यत्त्वमिच्छसि / वियोगमेवेच्छ मनः ! प्रियेण मे तव प्रसादान्न भवत्वसौ मम // 92 / / अन्वयः-हे मनः ! ( अहम् ) त्वदीप्सितम् प्रियम् न लभे, (त्वदीप्सितम्) मृत्युम् च ( नलभे ) / त्वम् यत् मम ( ईप्सितम् ) इच्छसि तत् एव मम न स्यात् / (तस्मात् ) प्रियेण मे वियोगम् एव इच्छ। तव प्रतादात् मम असौं न भवतु / ____टीका-हे मनः ! स्वान्त ! अहम् तव ईप्सितम् अभिलषितम् (ष० तत्पु०) प्रियम् नलम् न लभे न प्राप्नोमि, त्वदीप्सितम् मृत्यु मरणं च न लभे / त्वम् यत् मम ईप्सितम् इच्छसि कामयसे तत् ईप्सितम् एव मम न स्यात् न भवेत् / तस्मात् त्वम् प्रियेण नलेन मे मम वियोगम् विरहम् एव इच्छ कामयस्व / तव प्रसादात् अनुग्रहात् मम असो वियोगः न भवतु स्यात् / अयं भावः-यत् त्वम् इच्छसि तन्न भवति प्रत्युत तद्विपरीतमेव भवति तस्मात् त्वम् नलेन मे वियोगम् एवेच्छ, उक्तन्यायेन / स न भविष्यति, तद्विपरीतः नलेन संयोग एव भविष्यति / / 92 // व्याकरण-ईप्सितम् आप् + सन् + क्त ( कर्मणि ) / मृत्युम्/मृ + त्युक् ( भावे)। असौ मम यहाँ 'प्रियेण मे' की तरह ‘सपूर्वायाः प्रथमाया विभाषा' ( 811 / 26 ) से विकल्प होने के कारण 'मे' आदेश नहीं होने पाया है। अनुवाद- "हे मन ! मैं तुम्हारे द्वारा चाहे हए प्रिय ( नल) को नहीं पा रही हूँ, न ही ( तुम्हारी चाही हुई ) मृत्यु को पा रही हूँ, ( इसलिए ) तुम प्रिय से मेरा वियोग ही चाहो / तुम्हारी कृपा से वह / वियोग ) न होवे" // 92 // टिप्पणी-दमयन्ती के मन से प्रिय-वियोग चाहने के अनुरोध के पीछे यह तर्क है कि मन जो जो चाहता वह नहीं होता है उसके चाहने पर न "प्रिय-मिलन हो रहा है, न मृत्यु ! चाही हुई बात के बिलकुल विपरीत ही होता है / इसलिए वह मन से अनुरोध कर रही है कि वह प्रिय-वियोग चाहे, उसने होना ही नहीं, विपरीत ही होना है। इसलिए चाहे हुए प्रिय-वियोग के विपरीत स्वतः प्रिय