________________ नवमः सर्गः 467 टोका--पञ्च पञ्चसंख्याका इषवः बाणाः यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) काम इत्यर्थः एव हुताशनः बह्निः तत्सम्बुद्धी ( कर्मधा० ) त्वम् त्वरस्व त्वरां कुरु शीघ्रमेव मां दहेत्यर्थः मम भस्म भसितम् (10 तत्पु० ) एवेति मद्भस्ममयम् आत्मनः स्वस्य यशसाम् कीर्तीनाम् चयं समूहम् (10 तत्पु०) तनुष्व विस्तारय मम स्त्रियाः वधेन स्वकीयं विपुलं यशो जगति प्रख्यापयेत्यर्थः / हे विधे विधातः ! परस्य अन्यस्य ईहायाः इच्छायाः फलस्य अभीष्टस्य ( सर्वत्र प० तत्पु० ) भक्ष. णम् अशनम् मध्ये विघ्नम् आपाद्य तनिष्पत्त्यभाव इत्यर्थः एव व्रतम् नियमः ( कर्मधा० ) अस्यास्तीति तथोक्तः त्वम् अद्य अस्मिन् धवि अफलैः न फलं प्रयोजनं येषां तथाभूतैः (नन् ब० बी० ) नलाप्राप्त्या व्यरित्यर्थः मम मे असुभिः प्राणः तृप्यन् तृप्तो भवन् पत स्वर्गात् पतित्वा अधो गच्छ, स्त्रीवधरूपं पापं कृत्वा नरकगामी भवेत्यर्थः / / 88 // व्याकरण-हुताशनः अश्नाति ( भक्षयति ) इति अश् + ल्युः ( कर्तरि ) हुतस्य अशनः / भस्ममयम् भस्म + मयट् ( स्वरूपार्थे ) / चयः/चि + अच् ( भावे)। अनुवाद-“हे कामानल ! शीघ्रता करो; ( मुझे फूककर ) मेरी राख-रूपी अपनी यश-राशि को ( जग में) फैला दो। हे विधाता ! दूसरों के अभीष्ट फल को खा जाने का व्रत रखे हुए तुम आज मेरे बेकार पड़े जीवन से तृप्त होते हुए पतित हो जाओ" // 88 // टिप्पणी-यहां से लेकर तेरह श्लोकों में कवि दमयन्ती का विलाप वर्णन करने जा रहा है। वह कामदेव और विधाता-दोनों की फटकार से विलाप आरम्भ कर रही है। भस्म और कीति-दोनों सफेद होती हैं, इसलिए भस्म पर यशश्चयत्वारोप तथा पञ्चेषु पर हुताशनत्वारोप में रूपक है, परन्तु विद्याधर न जाने क्यों अतिशयोक्ति लिख रहे हैं, साथ ही समासोक्ति भी मान रहे हैं / सम्भवतः वे काम और विधाता पर चेतनव्यवहार समारोप कर रहे हैं, किन्तु हमारे विचार से कामदेव और विधाता-दोनों देवता होने के नाते स्वभावतः चेतन माने जाते हैं। उन्हें काम-भावना और भाग्य रूप में अमूर्त तत्त्व मान लें, तो बात दूसरी है.। 'मयं,श्चयं' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / भृशं वियोगानलतप्यमान ! कि विलोयसे न त्वमयोमयं यदि / स्मरेषुभिर्भद्य ! न वज्रमप्यसि ब्रवीषिन स्वान्त ! कथं न दीयंसे // 89 / /