________________ नवमः सर्गः शुचिरुजज्वलः' इत्यमरः ) अथ च ग्रीष्मस्य ( 'शुचिर्णीष्मे हुतवहे चापि' इति विश्वः ) रसस्य विभावादिव्यक्तस्य स्थायिभावस्य अथ च जलस्य ( 'गुणे रागे जले रसः' इत्यमरः ) सरसी सरः मासीत् बभूव / नल-वियोग-पीडिता कामशरप्रहृता च दमयन्ती विषादे रुदित्वा नयनाभ्याम् निरवच्छिन्नामश्रुधारां प्रवाहितवतीति भावः // 86 // व्याकरण-आशुगः आशु गच्छतीति आशु+ गम् + ड। धुता/धु + Nक्त ( कर्मणि ) + टाप् / रयाय रयेण निर्गन्तुम् तुमर्थ में चतुर्थी / सरसो सरस् + ङीप् / अनुवाद-आ पड़ रहे कामदेब के बाणों ( की पीड़ा ) से थरथराई तथा वेग से वहने हेतु जोर मार रही अश्रुधारा से नाल-सहित नील कमलों के सदृश आँखों वाली वह ( दमयन्ती ) उस समय शुचि ( विप्रलम्भ शृङ्गार ) रस की झील बन गई; ( साथ ही ) पक्षियों ( के पंखों), फूलों पर बैठे भ्रमरों, तथा वायु से प्रकम्पित शुचि ( ग्रीष्म ) की रस (पानी) की झील भी बन गई // 86 // टिप्पणी-इस श्लोक में कवि ने अपनी अलंकृत शैली का बड़ा चमत्कार दिखाया है। शब्दों में श्लेष रखकर कामव्यथित, निरन्तर अश्रुधारा वहाये दमयन्ती पर एक साथ शृङ्गाररस की झील तथा ग्रीष्मकाल में पतली हुई पडी पानी की झील-दोनों का आरोप कर दिया है। प्रिय-वियोग में आँखों से आँसुओं की सावन-भादो की-सी झड़ी लगाते हुए उसका शृङ्गारिक झील-रूप स्पष्ट ही है, लेकिन वह ग्रीष्मकाल की झील भी बन गई है / ग्रीष्मकाल में झील का पानी बहुत कुछ सूख जाता है। पानी की कमी के कारण कमल की इंडियाँ भी देखने में आ जाती हैं। पहले की तरह पानी में डूबी नहीं रहतीं। आँखें नीलकमल-जैसी है ही और उनसे निरन्तर गिरती जा रही लम्बी अश्रुधारा कमलडण्डी का सादृश्य अपना रही है। अश्रु जल है ही पक्षियों की फड़फड़ाहट भ्रमर दल तथा वायु से झील भी हिलती जाती है इस तरह मल्लिनाथ के अनुसार यहां दमयन्ती पर शृङ्गारसरसीत्व का और ग्रीष्माम्बुसरसीत्व का आरोप होने से दो रूपक हैं जिनके मूल में श्लेष और 'नीलोत्पललीलो' गत उपमा काम * कर रहे हैं। इस तरह इन सभी अलंकारों का अङ्गाङ्गिभाव संकर है। विद्या घर यहाँ चुप हैं / "रसी' "रस,' 'सर' 'सार' और 'नाल' 'नालो' में छेक ‘रया' 'रया' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 86 //