________________ नवमः सर्गः स्फुटोत्पलाभ्यामलिदंपतीव तद्विलोचनाभ्यां कुचकुडमलाशया। निपत्य बिन्दू हृदि कज्जलाविलौ मणीव नीलो तरलौ विरेजतुः // 8 // अन्वयः-कज्जलाविलौ बिन्दू कुच-कुड्मलाशया अलि-दम्पती इव स्फुटोत्पलाभ्याम् तद्-विलोचनाभ्याम् हृदि निपत्य तरलो नीलो मणी इव विरेजतुः / टोका - कज्जलेन अञ्जनेन आविलौ मलिनी किमपि कृष्णवर्णावित्यर्थः विन्दू अश्रुबिन्दुद्वयम् कुचौ स्तनी एव कुडमले कलिकाद्वयम् (कर्मधा.) तयोः आशया तृष्णया (10 तत्पु०) अली भ्रमरौ चामू दम्पती ( कमंधा०) जाया च पतिश्चेति दम्पती ( द्वन्द्व ) अथवा अल्योः दम्पती मिथुनम् (10 तत्पु० ) भ्रमरस्त्रीपुंसावित्यर्थः इव स्फुटे विकसिते ये उत्पले नोलकमले (कर्मधा०) ताभ्याम् नोलोत्पलरूपाभ्यामिति यावत् तस्या: दमयन्त्या: विलोचनाभ्याम् नयनाभ्यां (10 तत्पु० ) सकाशात् हृदि वक्षः स्थले निपत्य पतित्वा तरलो स्फुरन्तौ चञ्चलौ वा नीलो नीलवर्णी मणी मणिद्वयम् इव विरेजतुः शुशुभाते अञ्जनाक्तनयनाभ्याम् वक्षसि पतितो मलिनी अश्रुबिन्दू इन्द्रनीलमणी इव शोभते स्मेति भावः / / 85 // व्याकरण-बिदु यास्कानुसार भिद्यते इति भिन्दुः, भिन्दुरेव बिन्दुरिति दम्पती जाया च पतिश्च, जाया शब्द को दम् आदेश / मणाव यहाँ इदन्त द्विवचन को प्रगृह्य संज्ञा होने से प्रकृति भाव में सन्धि न होकर मणी इव प्रयोग व्याकरण संगत है / मणीव नहीं। अन्य कवियों ने प्रकृतिभाव वाला ही प्रयोग किया है जैसे-'मणी इवोद्भिन्नमनोहरत्विषौं' इत्यादि, किन्तु भट्टोजी दीक्षित ने 'मणीवोष्टस्य लम्बेते प्रिथौ वत्सतरौ मम के उदाहरण में व या वा शन्द को सादृश्यपरक भी माना है। यहाँ भी वही समाधान समझ लीजिए / यहाँ दीर्घसन्धि है ही नहीं। नारायण मल्लिनाथ यहाँ 'मणीवादेन' इस वातिक से प्रगृह्य का निषेध मान रहे हैं / किन्तु म० म० शिवदत्त का कहना है कि उक्त वार्तिक का मध्यभाष्य में कही भी उल्लेख नहीं आया है। अतः व को सादृश्यार्थक लेना ही ठीक है / ___ अनुवाद-काजल से मैले बने ( आँसुओं की ) दो बूदें कुच-रूप कलियों की आशा से भ्रमर-युगल की तरह विकसित नीलोत्पल-रूपी नयनों से गिरकर झिलमिलाते हुए इन्द्रनीलमणि जैसे शोभा पा रहे थे / / 85 // 1. विलेसितुः /