________________ 264 नैषधीयचरिते टिप्पणी-दमयन्ती की आँखों से काजल-मिले दो आँसू छाती पर गिरकर उसके अध-विकसित कुचों की ओर खिसकने लगे। इनकी तुलना कवि उस भ्रमर-दम्पत्ति से कर रहा है जो पूर्ण विकसित नीलोत्पल्ल का रस लेने के बाद अब दो रसायन हेतु अर्धाखली कलियों की ओर लपक रहे हैं। उसकी आँखें नीलोत्पल जैसी और कुच कुड्मल-जैसे हैं। यह उपमा है। जिसका कुचों पर कुडमलत्वारोप से बनने वाले रूपक के साथ अङ्गाङ्गिभाव संकर है। चाण्डू पण्डित कुचों पर कुडमलत्व के भ्रम में भ्रान्तिमान् मान रहे हैं / कजरारे अश्रुबिन्दु कुचों के पास दो इन्द्रनील मणियों क-सी. शोभा अपना रहे थे। विद्याधर इस अंश में उत्प्रेक्षा कह रहे हैं। इस पक्ष में हमें स्तनों पर लुढ़क रहे हार की कल्पना भी करनी पड़ेगी जिसके दो नीले मध्य-मणियों के रूप में दो आँसू चमक रहे थे नारायण ने आंसुओं की नीलमणियों से तुलना करके उपमा मानी है / वे तरल शब्द को मध्य-मणि के अर्थ में भी लेकर इसे श्लिष्ट मान रहे हैं। ऐसी स्थिति में हार दो होने चाहिए, क्योंकि एक हार में मध्य-मणि ( मेरु ) एक ही हुआ करता हैं, दो नहीं। 'पती' 'पत्य' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 85 / / . धनापतत्पूष्पशिलीमुखाशगैः शुचेस्तदासोत्सरसा रमस्य सा। रयाय बद्धादरयात्रुधारया सनालनीलोत्पलनीललोचना // 86 / / अन्वयः-आपतत्पुष्पशिलीमुखाशुगै धुता, रयाय बद्धादरया अयुधारया सनाल "लोचना सा तदा शुचेः रतस्य सरसी आसीत् / टीका-आपतन्तः आगच्छन्तः प्रह्रियमाणा इत्यर्थः ये पुष्पशिलीमुखाशुगा: तैः ( कर्मधा० ) पुष्पाणि एवं शिलीमुखाः वाणाः ( कमंधा० ) यस्य तथाभूतस्य (ब० वी० ) कामदेवस्य आशुगैः बाणैः : 10 तत्पु० ) अथ च पतन्तः पक्षिणश्च ( 'पतत्-पत्ररथाण्डजाः' इत्यमरः) पुष्पेषु शिलीमुखा भ्रमराः ( स० तत्पु० ) च ( 'अलिबाणी शिलोमुखौ' इत्यमरः ) आशुगः वायुश्चेति (द्वन्द्व / तैः ( 'आशुगी वायु-विशिखौ' इत्यमरः ) धुता कम्पितः रयाय वेगाय बद्धः कृतः आदरोऽ. भिनिवेश इत्यय: ( कर्मधा० ) यया तथाभूतया ( ब० वी० ) वेगवत्प्रवाहयुक्तयेत्यर्थः अश्रूगां अस्रस्य धारया ओघेन नालेन. दण्डेन सह वर्तमानम् ( ब० वी० ) यत् नीलम् उत्पलम् कमलम् ( उभयत्र कर्मधा० ) तद्वत् लीला विलासः / उपमान तत्पु० ) ययोः तथाभूते लोचने नयने ( कर्मधा०) यस्याः तथाभूता (ब० वी०) सा दमयन्ती तदा तदानीम् शुचेः शृङ्गारस्य विप्रलम्भ रूपस्य ( 'शृङ्गारः