________________ नवमा सगः रहा है, अतः अर्थान्तरन्यास है / 'भवे भवन्तीम्' में छेक, 'हरि' 'हरि' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 46 / / / निवेक्ष्यसे यद्यनले नलोज्झिता सुरे तदस्मिन्महती दया कृता / चिरादनेनार्थनयापि दुर्लभं स्वयं त्वयैवाङ्ग ! यमङ्गमर्प्यते / / 47 / / अन्वयः-नलोज्झिता ( त्वम् ) यदि अनले निवेक्ष्यसे, तत् अस्मिन् सुरे ( त्वया ) महती दया कृता, यत् अङ्ग! अनेन चिरात् अर्थनया अपि दुर्लभम् अङ्गम् त्वया एव स्वयम् अर्यते / टीका-लेन उज्झिता त्यक्ता अनूढेत्यर्थः सती त्वम् यदि चेत् अनले अग्नौ निवेक्ष्यसे आत्मदाहायं प्रवेशं करिष्यसि, तत् तहि अस्मिन् अनलाख्ये एतस्मिन् सुरे देवे त्वया महती विपुला दया कृपा कृता, यत् यस्मात् अङ्ग ! हे भैमि ! अनेन देवेन अग्निना चिरात् बहुकालात् आरभ्य अर्थनया याचनया अपि दुर्लभम् लब्धुमशक्यम् अङ्गम् शरीरम् त्वया एव स्वयम् आत्मना एव अयंते दीयते / अग्निदेवेन चिरात् तव शरीरं याचितम् परन्तु त्वया न दत्तम्, अग्नी प्रवेशे तु स्वदेहं स्वयमेव तस्मै दातुं ते आपतिष्यतीति विचित्रमेवेदमिति भावः / व्याकरण-निवेक्ष्यसे नि उपसर्ग लगनेसे विश आत्मनेपद हो जाता है / इसके सकर्मक होने पर भी अधिकरण-विवक्षा में यहां सप्तमी हुई है। सुरे इस शब्द के सम्बन्ध में सर्ग 5 श्लोक 34 देखिए / अर्थनया- अर्थ + युच, यु को अन + टाप् / दुर्लभम् कृच्छ्रेण लब्धं शक्यमिति दुर् + Vलभ् + खल / अङ्गम् अङ्गति ( चलति ) इति / अङ्ग + अच् / अनुवाद-"नल द्वारा न स्वीकृत की हुई तुम यदि अग्नि में प्रविष्ट होगी, तो इस ( अग्नि ) देव पर तुमने बड़ी कृपा कर दो ( समझो ) जो हे दमयन्ती! तुम कभी से प्रार्थना द्वारा भी न प्राप्त हो सकने वाला अपना शरीर तुम ही स्वयं ( उन्हें ) दे रही हो" / / 47 // .. टिप्पणी-कुछ निरुक्तकारों के अनुसार अग्नि सूर्य आदि देवता चेतन प्राणी होते हैं। प्रत्यक्ष जड़ रूप में देख पड़ने वाले ज्वाला-पुञ्ज अथवा गोला. कार तेज पिण्ड आदि उनके कार्य-शरीर होते हैं, जिस रूप में वे जगत में काम किया करते हैं / दमयन्ती अपना शरीर अग्निदेव के कार्य-शरीर-धधकते ज्वालापञ्ज में डालेगी, तो उसने स्वयं उसके अधिष्टातृ-भूत चेतन अग्निदेव को