________________ 450 नंषधीयचरिते जानीयात् तथा विनिःश्वसन् निश्वासान् विमुञ्चन् विचित्रा विलक्षणा या वाक् वाणी (कर्मधा० ) तस्याम् चित्रशिखण्डिनन्दनः बृहस्पतिः ( स० तत्पु०) ( 'वाचस्पतिश्चित्रशिखण्डिजः' इत्यमरः) चातुरीपूर्णवाक्यप्रयोगे बृहस्पतिरिवेत्यर्थः नलः शनैः दुःखान्, निश्वासकारणादेव च मन्दम् यथा स्यात्तथा अशंसत् अकथयत् / 37 // व्याकरण-अति: अर्द + क्तिन् (भावे ), द्-लोप निपातित / मर्मन् म्रियते जीव इति/मृ + मनिन् / विरन्तम् वि + /रम् + तुमुन्, म को न। ऐहत Vईह् + लङ् / नन्दनः नन्दयतीति /नन्द् + ल्यु ( कर्तरि ) / अनुवाद-वह ( नल ) उस ( दमयन्ती ) की दर्द-भरी उक्तियों से मर्माहत होते हुए भी अपने दोत्य-कर्तव्य से हटना नहीं चाहते थे। चुपके-चुपके आहे खींचते हुए, चतुरता-भरी वाणी में बृहस्पति रूप वे धीरे-धीरे बोले // 73 // टिप्पणी-अपनी ओर दमयन्ती का निश्छल, अविचल अनुराग देख नल आत्मविभोर हो उठे। सहसा हृदय में कामभावना भड़क गई और वे गहरी आहें भरने लगे, गला रंध-सा गया, लेकिन दूसरे ही क्षण कर्तव्य-बोध हुआ तो एकदम संभल गए। भावना और कर्तव्य के वीच संघर्ष में कर्तव्य जीत गया, भावना रह गई। चित्रशिखण्डिनन्दन:-यह वृहस्पति का नाम है। चित्रशिखण्डी सप्तर्षिमण्डल को कहते हैं जिसके अन्तर्गत मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, और वसिष्ठ-ये सात ऋषि आते हैं। इनमें से वृहस्पति अंगिरा के पुत्र हैं, इसीलिए ये आङ्गिरस भी कहलाते हैं। वसिष्ठ के सम्बन्ध में देखिए बालरामायण 'इक्ष्वाकूणां कुलगुरुं श्रेष्ठं चित्रशिखण्डिनाम् / अरुन्धती. पतिमृषि राम एषोऽभिवन्दते' / विद्याधर यहाँ नलके मर्माहत होने पर भी दूतत्व को न छोड़ने में विभावना कह रहे हैं जब कि हमारे विचार से यह विशेषोक्ति है (सति हेतो फलाभाव:) नल के साथ वृहस्पति का अभेदाध्यवसाय में उनकी कही अतिशयोक्ति ठोक ही है। 'चित्र' 'चित्र' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 73 // दिवोधवस्त्वां यदि कल्पशाखिनं कदापि याचेत निजागणालयम् / कथं भवेरस्य न जीवितेश्वरा न मोघयाच्यः स हि भीरु ! भूरुहः // 7 // अन्वयः-(हे दमयन्ति ! ) दिवः धवः निजाङ्गणांलयम् कल्पशाखिनम्