________________ नवमः सर्गः 449 अदयं निदयम् कृतान्तम् यमम् एव अमन्यत यमसदृश-पीडोत्पादकत्वात् / पीयूषमधुराः कामोद्दीपिकाश्च दमयन्ती-गिरः श्रुत्वा नलो दमयन्तीवात्मानं न यमदूत मपितु साक्षात् यममेव मन्वानो मनसि भृशदुःखितोऽभवदिति भावः // 72 // व्याकरण-औरसी: ( द्वि० ) उरस + अण + ङीप / निपीय इसके लिए प्रथम सर्ग का प्रथम श्लोक देखिए / हुतोशन: अश्नातीति/अश + ल्यु ( कर्तरि ) यु को अन / हुतस्य अशनः / आहुतिः आ + Vहु + क्तिन् ( भावे)। कृतान्तः कृतः अन्तः ( समाप्तिः ) येनेति / उदितम् वत् + क्त ( कमणि ) संप्रसारण / अनुवाद-वह ( नल ) अमृतरस से उत्पन्न हुई, अपनी कामाग्नि की आहुतिरूप बने ( दमयन्ती के ) वचनों को सादर सुनकर अपने को यम का दूत नहीं जैसे कि दमयन्ती ने उन्हें माना था, ( बल्कि ) निर्दय यम ही मान रहे थे / 72 // टिप्पणो-नल को प्रियतमा की मधुर, कामोद्दीपक वाणी सुनकर मन में बड़ा दुःख होने लगा कि मैं भी कितना निर्दय-हृदय हूँ, जो इस बेचारी के हृदय को कचोट देने वाली, देववरणविषयक अप्रिय बातें कह रहा है। ऐसी हालत में मैं यम-दूत नहीं हूँ, किन्तु इसे उत्पीड़न देने वाला साक्षात् यम ही हूँ। कन्दर्प पर हुताशनत्वारोप और वाणी पर आहुतित्वारोप में कार्यकारणभाव होने से परम्परित रूपक, 'रसौ' 'रसो' में यमक, 'पीय' 'पीयू', 'हुता' 'हुतीः' तथ! 'कृतान्त' 'कृतान्न' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 72 // स भिन्नमर्मापि तदतिकाकुभिः स्वदूतधर्मान्न विरन्तुमैहत / शनैरशंसन्निभृतं विनिश्वसन्विचित्रवाक्चिशिखण्डिनन्दनः / / 73 / / अन्वयः-सः तदति-काकुभिः भिन्न-मर्मा अपि सन् स्वदूतधर्मात् विरन्तुम् न ऐहत; निभृतम् विनिश्वसन् विचित्र "नन्दनः शनैः अशंसत् / __टोका–स नलः तस्याः दमयन्त्याः या अतिः पीड़ा (10 तत्पु०) तया काकुभिः भिन्नकण्ठध्वनिभिः पीडाजनित-दीनताभरिताभिः उक्तिभिरिति यावत् ( तृ० तत्पु० ) भिन्न विदीर्ण मर्म हृदयं (कर्मधा०) यस्य तथाभूतः (ब० वी० ) अपि सन् स्व: स्वकीयः यो दूतधर्मः ( कर्मधा० ) दूतस्य धर्मः दौत्यमित्यर्थ: तस्मात् (10 तत्पु० ) विरन्तुम् विरतीभवितुम् न ऐहत न ऐच्छत्, दूतधर्मान्न विचलितोऽभवदित्यर्थः / निभृतम् गुप्तम् यथा स्यात्तथा अर्थात् यथा दमयन्ती न