________________ 448 नंषधीयचरिते गत कर रखा है, उसे जिस स्त्री ने महादेव की क्रोधाग्नि की राख ( काम ) के खातिर त्याग दिया उसने वही राख अपने कुल में बिखेर दी समझो" // 71 / टिप्पणी--चिन्तामणिः--यह एक ऐसी मणि होती है जिससे कल्पवृक्ष की तरह जो चाहो मिल जाता है। श्रीहर्ष ने सर्ग 3 श्लोक 81 में भी इसका प्रयोग कर रखा है। महाभारत में भी इसका उल्लेख है-'काच-मूल्येन विक्रीतो हन्त ! चिन्तामणिर्मया' इत्यादि / रत्नत्रितये-जैन दर्शन में श्रेय-मार्ग अर्थात् मुक्ति के लिए जिन तीन बातों का उल्लेख है, उन्हें 'रत्नत्रय' कहा गया है। वे हैं-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य / सम्यक् दर्शन तत्त्वों के सम्यक परिप्रेक्ष्य से देखने फिर उनमें पूरा विश्वास करने और तीर्थङ्करों के उपदेशों तथा उपदिष्ट सत्य में दृढ़ निष्ठा रखने को कहते हैं। सम्यक् ज्ञान पदार्थों के सम्यक् दर्शन के बाद हुए यथार्थ बोध को कहते हैं। सम्यक चारित्र्य सम्यक्र दर्शन और सम्यक् ज्ञान को क्रियात्मक रूप देने को कहते हैं। इसे सदाचार अथवा धर्म भी कहते हैं / मनु ने भी कहा है--आचारः परमो धमः / पातिव्रत्य इसी के भीतर आता है कामवश हो चरित्र को खो देने वाली नारी अपने कुल. को भस्म कर देती है, उसे कहीं का नहीं रहने नहीं देती समाप्त ही कर देती है। धर्म पर चिन्तामणित्वारोप में, तीन सिद्धान्तों पर रत्नत्रितयत्वारोप में तथा कोप पर अनलत्वारोप में रूपक, 'कपा' 'कोप' तथा 'भस्म, भस्म' में छेक. अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / / 71 // निपोय पीपूषरसौरसीरसौ गिरः स्वकन्दर्पहुताशनाहुतीः / कृतान्तदूतं न तया यथोदितं कृतान्तमेव स्वममन्यतादयम् // 72 // अन्वयः-असो पीयूष-रसौरसीः स्वः "हुतीः गिरः निपीय स्वम् तया तथा उदितम् कृतान्त-दूतम् न अमन्यत ( किन्तु ) अदयम् कृतान्तम् एव अमन्यत / टीका-असो नल: पीयूषम् अमृतम् एव रस: पेयम् ( कर्मधा० ) तस्य औरसीः उरसः उत्पन्नाः पुत्री:, आत्मजाः अमृतरससदृशीः इत्यर्थः स्वः स्वकीयः कन्दर्पः काम एव हुताशनः अग्निः (उभयत्र कर्मधा०) तस्य आहुतीः आहुतिरूपाः उद्दीपिकाः इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) गिरः वाणी: निपीय सादरम् आकर्ण्य स्वम् आत्मानम् तया दमयन्त्या ( सखीद्वारा ) यथा येन प्रकारेण उदितम् कथितम् कृतान्तस्य यमस्य दूतम् सन्देशहरम् (10 तत्पु०) न अमन्यत अवगतवान् किन्तु