________________ 442 नैषधीयचरिते (कमलिनी-पत्र पर ) चित्र बनाकर मेरा वह प्रियतम ( नल ) तुम्हारे ही रूप के सदृश कहा था // 65-66 // टिप्पणो-सखी के मुख से दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि 'स्वयंबर के बीच का यह दिन मेरे लिये एक युग के समान है / यह दिन बीतते-बीतते वियोग की विहवलता में तब तक मेरे प्राण ही निकल जाएंगे। इसलिए इस एक दिन के लिए तुम यहां टिके रहो तो मैं प्राण धारण कर लूंगी। कारण कि तुम्हारा मन-भावना, सुहावना चेहरा एकदम प्रियतम के चेहरे से मिलता-जुलता है। प्रश्न उठ सकता है कि परपुरुष को देखते रहने में क्या दमयन्ती का पातिव्रत्य भङ्ग नहीं हो जाएगा? नहीं इसमें पातिव्रत्य भङ्ग की कोई बात नहीं, क्योंकि वह आगन्तुक को नल-बुद्धि से देखती रहेगी, नल-भिन्न परपुरुष-बुद्धि से नहीं। उत्कट वियोगावस्था में नायक अथवा नायिका के लिए प्रियतमा अथवा प्रियतम अथवा उनके अङ्गों के सदृश वस्तु द्वारा प्राणधारणार्थ मनोविनोद साहित्य में अनुमत है। नारायण और विद्याधर इन दोनों श्लोकों को एकान्वयी मानकर एक-साथ व्याख्या कर रहे हैं। हमने भी उनका अनुसरण किया है, लेकिन मल्लिनाथ पृथक-पृथक् व्याख्या कर रहे हैं। पूर्व श्लोक में विद्याधर 'असुभिः' में सहाथ में तृतीया मानकर ‘दिन के साथ 2 प्राण भी चले जाएंगे' इस तरह सहोक्तिपूर्वक अतिशयोक्ति कह रहे हैं, जो कार्यकारणपौर्वापर्यविपर्ययरूपा होगी, अर्थात् दिन-समाप्ति से पहले दमयन्ती के प्राण निकल पड़ेंगे तब दिन समाप्त होगा। किन्तु यहाँ दोनों का साथ-साथ समाप्त होना बताया गया है। हमारे विचार से वासर पर अन्तरायत्वारोप में रूपक भी है / दूसरे श्लोक में 'रूपेण समः' में उपमा और काव्यलिङ्ग हैं। 'वरण वरः', 'सरै सर:', 'लाख्या' 'लिख्य' और 'समः स म', में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 65-66 // दृशोर्द्वयी ते विधिनास्ति वञ्चिता मुखस्य लक्ष्मों तव यन्न वीक्षते / असावपि श्वस्तदिमां नलानने विलोक्य साफल्यमुपैतु जन्मनः // 67 / / अन्वयः-विधिना ते दृशोः द्वयी वञ्चिता अस्ति यत् तव मुखस्य लक्ष्मीम् न वीक्षते, तत् असो अपि श्वः नलानले इमाम् विलोक्य जन्मनः साफल्यम् उपैतु /