________________ 440 नंषधीयचरिते रसज्ञा (जिहवा) से-जो स्वयं मैं हूँ और उसके रस ( अनुराग ) को जानती हूं-आपको कह रही है" / / 64 // टिप्पणी-'मैं किसी भी देवता को नहीं चाहती है, केवल नल को चाहती हूँ, यह अपने मन की बात आगन्तुक दूत के सामने प्रकट करने में दमयन्ती लजा गई। इस बात को सखी किस ढङ्ग से कहती है कि दमयन्ती की रसज्ञा (जिह्वा ) मौन व्रत अपनाये हुए हैं क्योंकि वह त्रपा देवी की आराधना में लगी हुई है। आराधना में लगा व्यक्ति मौन व्रत ही रखता है। सखी भी दमयन्ती की रसज्ञा (जिह्वा) हो-है, जो उसका नल विषयक रस ( अनुराग) जानती है, इसलिए वही दमयन्ती को जिह्वा-मुख-बनकर उसकी तरफ से उत्तर देती है। विद्याधर यहाँ समासोक्ति कह गए हैं, किन्तुं हमारे विचार से 'मया' पर रसज्ञात्वारोप होने से रूपक बन रहा है / 'रसज्ञा' में श्लेष स्पष्ट हो है। 'कया' 'न्यया' 'ज्ञया' 'मया' में पदान्तगत तथा पादान्तगत दोनों प्रकार का अन्त्यानुप्रास है // 64 // तचितुं मद्वरणस्रजा नृपं स्वयंवरः संभविता परेद्यवि। ममासुभिर्गन्तुमनाः पुरःसरैस्तदन्तरायः पुनरेष वासरः // 65 // तदद्य विश्रम्य दयालुरेधि मे दिनं निनीषामि भवद्विलोकिनी। नखैः किलाख्यायि विलिख्य पक्षिणा तवव रूपेण समः स मत्प्रियः।।६६॥ अन्वयः-मद्वरण-स्रजा तम् नृपम् अचितुम् परेद्यवि स्वयंवरः संभविता पुरःसरैः मम असुभिः ( सह ) गन्तुमनाः एष वासरः पुनः तदन्तरायः (अस्ति)। तत् अद्य विश्रम्य ( त्वम् ) मे दयालुः एधि / भवद्विलोकिनी ( सती) दिनम् निनीषामि, किल पक्षिणा नविलिख्य स मत्प्रियः तव एव रूपेण समः आख्यायि / टोका-मम वरणस्य या लक् माला वरमालेत्यर्थः ( उभयत्र ष० तत्पु.) तया तम् नृपम् नलाख्यं राजानम् अचितुम् पूजयितुम् परेद्यवि परेयुः श्व इति यावत् स्वयंवरः स्वयं स्व-वरस्य वरणमहोत्सवः संभविता संभविष्यति / पुरः सरन्तीति तथोकः ( उपपद तत्पु० ) अग्रगैः मम असुभिः प्राणः सह गन्तुं मनो यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) एषः अयम् वासरः दिवसः पुनः किन्तु तस्य स्वयंवरस्य अन्तरायः विघ्नभूतः अस्ति / एकस्य दिवसस्य यापनं मत्कृते अतिसुदुः