________________ नवमः सर्गः 445 आर्य शब्द श्रेष्ठ का वाचक है, जिसका सम्बन्ध पत्नी पति के माता-पिता से जोड़ती है अर्थात् श्रेष्ट पूज्य सास-श्वसुरके पुत्र / सहाधीतिधृतः में उपमा, सङ्ग, मङ्ग, संग में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'धीति धृतः,' 'जयं मजि' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 68 // दिगीश्वरार्थे न कथंचन त्वया कदर्थनीयास्मि कृतोऽयमञ्जलिः / प्रसद्यतां नाद्य निगाद्यमीदृशं दृशौ दधे वापरयास्पदे भृशम् // 69 // ' अन्वयः-त्वया ( अहम् ) दिगीश्वरार्थम् कथंचन न कादर्थनीया अस्मि / / अयम् अञ्जलिः कृतः / प्रसयताम् / अद्य ईदृशम् न निगाद्यम् / (अहम् ) दृशी भृशम् बाष्परयास्पदे दघे। ___टीका-त्वया देवदूतेन अहम् विशाम् ईशाः स्वामिनः इन्द्रादयः (10. तत्पु० ) तेभ्यः इति ( चतुर्थ्यर्थे अर्थेन नित्य समासः) कथंचन केनापि प्रकारेण न कदर्थनीया पीडनीया अस्मि / अयम् एष अञ्जलिः कृतः अञ्जलि-बन्धन पूर्वकं 'निवेदये' इत्यर्थः। प्रसद्यताम् त्वया प्रसन्नीभूयताम् / अद्य ईदृशम् दिगीशेषु कमप्येकं वृणु-इत्याद्यात्मम् मेप्रीतिकरमित्यर्थः न निगाबम् न त्वया कथनीयम् / अहम् दृशौ नयने भृशम् अत्यन्तम् बाष्पस्य अस्रस्य यो रयः वेगः तस्य आस्पदे स्थाने ( उभयत्र ष० तत्पु० ) दधे धारये तवेदृशानुचितप्रस्तावे मम महती पीडा जायते इत्यर्थः / तस्मात् अलम् एतादृशेन प्रसङ्गेनेति भावः // 69 // ___ व्याकरण-ईश्वरः ईष्टे इति/ईश + वरच् / कवर्थनीया-कुत्सितः अर्थः कदर्थः तम् करोतीति कु+ अर्थ, कु को कदादेश + णिच् + अनीय (नामधातु) प्रसद्यताम् प्र+सद् + लोट् ( भाववाच्य)। निगाद्यम् नि+गद् + ण्यत् / ___ अनुवाद-"तुम दिक्पालों की खातिर मुझे किसी भी तरह तंग न करो। तुम्हें हाथ जोड़ती हूँ। कृपा करो ।.आज ऐसा न कहो। ( तुम्हारे ऐसा कहने पर ) मेरी आँखें बुरी तरह आँसुओं के वेग का घर बन जाती हैं" // 69 // टिप्पणी-कल मेरा स्वयंबर है। तुम्हारी इन ऊलजलल बातों से मुझे रोना आ जाता है। भीतर ही भीतर आँसू पीने पड़ते हैं यह सोचकर कि ये नीचे न गिरजायं। आँसुओं का नीचे गिरना माङ्गलिक कार्य में अपशकुन माना जाता है। विद्याधर के अनुसार यहाँ दमयन्ती में दैन्यभाव का उदय होने से भावोदयालंकार है / नाद्य, गाद्य में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र बृत्त्यनु.. प्रास है // 70 //