________________ नवमः सर्गः 443 टीका-विधिना ब्रह्मणा ते तव दृशोः नयनयोः द्वयी द्वयम् वञ्चिता प्रतारिता अस्ति, यत् यस्मात् सा तव मुखस्य वदनस्य लक्ष्मीम् शोभाम् न वीक्षते प्रत्यक्षीकरोति स्वेन स्वमुखस्य प्रत्यक्षासंभवात् / दर्पणे; मुखस्य प्रतिबिम्बमेव दृश्यते न पुनः स्वयंमुखभितिभावः तत् तस्मात् असो ते दृग्द्वयी अपि श्वः परेछुः नलस्य मत्प्रियतमस्य आनने मुखे (10 तत्पु० ) इमाम् स्वमुखलक्ष्मीम् विलोक्य दृष्ट्वा जन्मन: जीवनस्य साफल्यम् सार्थकताम् उपेतु प्राप्नोतु / नलमुखे स्वमुखशोभां विलोक्य त्वं सफलजन्मा भविष्यसीति भावः // 67 // व्याकरण-विधि: विदधाति जगदिति वि+Vधा + कि ( कर्तरि ) / दृक पश्यतीति/दृश + किप ( कर्तरि ) / द्वयी द्वौ अवयवौ यत्रेति द्वि+ तयप, उसे विकल्प से अयच् + लीप / श्वः यास्कान्सार 'आशंसनीयकालः इति' शंस + वस निपातनात् साधुः / जन्म/ जन् + मनिन् ( भावे ) / अनुवाद- "ब्रह्मा ने तुम्हारी दोनों आँखों को धोखा दिया है, क्योंकि वे तुम्हारे मुख की शोभा नहीं देख पा रही हैं. अतएव ये भी कल नल के मुख पर इसे देख जन्म की सफलता प्राप्त कर लें" / / 67 // टिप्पणी-'तुम्हारे एक दिन मेरे यहाँ विश्राम करने से मुझे ही अपने प्राणों की रक्षा में सहायता नहीं मिलेगी बल्कि तुम्हारा भी इससे अपना मतलब सिद्ध होगा अर्थात् तुम्हारे चेहरे की अब तक अनदेखी शोभा को तुम्हारी आँखें नल के चेहरे पर देख कर धन्य धन्य हो जाएंगी। इस तरह यह “एक पंथ दो काज वाली बात हो जाएगी'। आँख अपने सामने वाली वस्तु को ही देखती है, अपनी ओर के मुख को नहीं। मल्लिनाथ और विद्याधर-दोनों यहाँ अतिशयोक्ति कह रहे हैं क्योंकि दूत की और नल की विभिन्न मुख-शोभाओं में अभेदाध्यवसाय हो रहा है। हमारे विचार से निदर्शना भी होकर दोनों का सन्देहसंकरालंकार बनेगा। काव्यलिङ्ग भी है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 67 // ममैव पाणीकरणेऽग्निसाक्षिकं प्रसंगसंपादितमङ्ग ! संगतम् / न हा सहाधीतिधृतः स्पृहा कथं तवार्यपुत्रीयमजर्यमजितुम् ? // 68 // अन्वयः-भङ्ग ! मम पाणीकरणे एव अग्निसाक्षिकम् संगतम् प्रसङ्ग-सम्पादितम् ( स्यात् ) / हा ! सहाधीतिधृतः तव आर्यपुत्रीयम् अजयम् अजितुम् स्पृहा कथं न ?