________________ 439 नवमः सर्गः टिप्पणी-तुम्हारे कहे हुए अभद्र शब्द कि मैं दिक्पालों को चाहती हूँ,मेरी बदनामी का एक लेख-सा बन गया है, जिसके लिए, मुख बना दवात और उससे निकली बदनामी बनी काली स्याही। कवि जगत् में यश श्वेत और अपयश काला होता ही है। दुर्यश पर मषीत्वारोप में रूपक, लिपिरूपभागिव में उत्प्रेक्षा और कीटवत् में उपमा है। विद्याधर यहाँ श्लेष भी कह रहे हैं / 'लिपि रूप' में (रलयोरभेदात् ) तथा 'कीट' 'कटा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 63 // तमालिरूचेऽथ विदर्भजेरिता प्रगाढमौनव्रतयैकया सखी / त्रपां समाराधयतीयमन्यया भवन्तमाह स्वरसज्ञया मया // 64 // अन्वयः -अथ विदर्भजेरिता-आलिः तम् ऊचे-"इयं सखी प्रगाढमौनव्रतया एकया स्वरसज्ञया त्रपां समाराधयति, अन्यया मया स्वरसज्ञया भवन्तम् आह / " टीका-अथ तदनन्तरम् विवर्मजा दमयन्ती तया ईरिता प्रेरिता आलि: सखी तम् नलम् ऊचे कथयामास ‘इयम् एषा मे सखी दमयन्ती प्रगाढम् दृढम् मौनम् तूष्णीम्भावः एव ब्रतम् नियमः ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतया (ब० वी० ) एकया स्वा स्वकीया या रसज्ञा रसं (मधुरादिकं ) जानातीति तथोक्ता ( उपपद तत्पु० ) जिह्वा तया ( कर्मधा० ) त्रपाम् लज्जाम् समाराधयति भजत अन्यया अपरया मया मद्रूपया स्वरसज्ञया स्वजिह्वया अथ च स्वं रसम् नलविषयकानुरागं जानन्त्या भवन्तम् त्वाम् आह कथयति, लज्जाकारणात् सा स्वयं स्वाभिलाषं त्वदने कथयितुं न शक्नोतोति मन्मुखेन कथयतीति भावः // 64 // व्याकरण-विदर्भजा-विदर्भेभ्यः जायते इति विदर्भ + जन् + ड + टाप् / प्रगाढ़ प्र+/गाह + क्त / मौनम् मुनेः भाव इति मुनि + अण् / रसज्ञा रस + Vज्ञा + क + टाप / त्रपात्र + अङ (भावे+टाप् ) / आह V+लट विकल्प से 'आह' आदेश / अनुवाद-तत्-पश्चात् दमयन्ती द्वारा प्रेरित की हुई सखी उन ( नल ) को बोली-“यह मेरी सखी ( दमयन्ती) दृढ़ मौन-व्रत अपनाये अपनी एक रसज्ञा ( जिह्वा ) से त्रपा की आराधना कर रही है ( और ) अपनी दूसरी