________________ 438 नैषधीयचरिते पाप है। इस लिए पापिनी तो मैं पहले ही हो गईं जो तुमसे बोली। अब तुमने देवताओं के अभद्र सन्देश सुना कर मुझे मर्मान्तक पीड़ा दी है। नल के से सुन्दर आकार को रखे हुए भी तुमने इन कुसन्देशों से सुइयों से-जैसे बींधकर मुझे मेरे पापके अनुरूप यातना दी है। चारों देवों के दूत होते हुए भी तुमने मुझे मृतप्राय करके यमदूत का ही काम किया है। यमदूत मरणोपरान्त पापियों को सुइयां चुभा चुभा कर नरक-यातना देते ही हैं। दुर्वाचिक पर सूचित्वारोप होने से रूपक है प्रयातजीवामिव में उपमा है। विद्याधर समासोक्ति भी कह रहे हैं, जो समझ में नहीं आ रही है / 'सूचि-संचयः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 62 // त्वदास्यनिर्यन्मदलीकदुर्यशोमषोमयं सल्लिपिरूपभागिव / श्रुतिं ममाविश्य भवदुरक्षरं सृजत्यदः कीटवदुत्कटा रुजः // 63 / / अन्वयः-त्वदास्य-नियंत् मद 'मयम् लिपिरूपभाक् इव सत् अदः भवदुरक्षरम् मम श्रुतिम् आविश्य कोटवत् उत्कटाः रुजः सृजति / टीका-तव आस्यम् मुखम् (10 तत्पु० ) तस्मात् नियंत निर्गच्छत् (ष. तत्पु० ) मम यत् अलीकम् इन्द्रादिष्वहमनुरज्ये इति मत्सम्बन्धि मिथ्या. रूपम् (10 तत्पु० ) दुर्यशः अपकीतिः (कर्मधा०) एव मषी (स्याहीति भाषायां) प्रसिद्धा तत्-प्रचुरमिति तन्मयम् सती चासो लिपिः सल्लेखः तस्या रूपम् स्वरूपम् (10 तत्पु० ) भजति धारयतीति तथोक्तम् ( उपपदतत्पु०) इवेति अदः एतत् भवतः तव दुरक्षरम् दुष्टाक्षराणि दुःशब्दा दुःसन्देश इति यावत् मम मे श्रुतिम् कर्णम् आविश्य प्रविश्य कोट: कृमिः इव उत्कटा: महती: रुजः पीडाः सृजति जनयति / त्वच्छब्दाः लेखबद्धा इव भूत्वा मत्कर्णयोः महापीडां कुर्वन्तीति भावः // 63 // ___ व्याकरण-आस्यम् अस्यते (प्रक्षिप्यते ) अन्नादिकमोति अस् + ण्यत् ( अधिकरणे)। निर्यत् निर + इ + शतृ / मषीमयम् प्राचुर्ये स्वरूपार्थे वा मयट / भाकर भज् + विप् ( कर्तरि ) / श्रुतिम् इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / लिपिः/लिप्+ इक / रुज /रुज + विप् ( भावे) // 63 // अनुवाद-"तुम्हारे मुँह से निकलते हुए मेरे सम्बन्ध में झूठे अपयश-रूषी स्याही रखे, अच्छे-से लेख का रूप अपनाये हुए-जैसे तुम्हारे ये शब्द मेरे कानों में घुसकर कीड़े की तरह बड़ी बीव्र-पीड़ा उत्पन्न कर रहे हैं / / 63 / /