________________ नवमः सर्गः 425 टिप्पणी-नल दमयन्ती के देववरणविषयक निषेध-कथन को वक्रोक्ति मान कर विधि-परक समझ रहा है। चतुर स्त्रियों का स्वभाव है कि वे सीधा जनभाषा में न कहकर वक्रोक्तिपूर्ण कविभाषा में बोला करती हैं। उनके 'ना' का व्यङ्गय 'हाँ' और 'हो' का व्यङ्गय 'ना' होता है। इसी काव्य में हम कितनी ही जगह दमयन्ती की इस वक्रोक्ति के 'हाँ' 'ना' का विलास देखते चले आ ही रहे हैं। विधिपरक निषेध के लिए साहित्यदर्पण में उद्धृत यह उदाहरण देखिए-'श्वश्रूरत्र निमज्जति, अत्राहं, दिवस एव प्रलोकय / मा पथिक, राज्यन्ध, शय्यायां मम निमक्ष्यसि // निषेध-पूरक विधि के लिए नारायण ने यह श्लोक उद्धृत किया है-'प्राणेश, विज्ञप्तिरियं मदीया तत्रैव नेया दिवसा: कियन्तः / संप्रत्ययोग्यस्थितिरेष देशः कला यदिन्दोरपि तापयन्ति // ' मल्लिनाथ पूर्वार्धगत विशेष बात का उत्तरार्धगत सामान्य बात से समर्थन मान कर अर्थान्तरन्यास कह रहे हैं जब कि विद्याघर ने यहाँ आक्षेप माना है। शब्दालंकार वृत्यनुप्रास है / / 50 // भ्रमामि ते भमि / सास्वतोरसप्रवाहचशेष निपत्य कत्यदः। त्रपामपाकृत्य मनाक्कुरु स्फुटं कृतार्थनीयः कतमः सुरोत्तमः / / 51 // अन्वयः-हे भैमि ! ( अहम् ) ते सरस्व०... 'क्रेषु निपत्य कति (वारान्) भ्रंमामि ? त्रपाम् मनाक अपाकृत्य कतमः सुरोत्तमः ( त्वया ) कृतार्थनीयःअदः स्फुटम् कुरु। टीका - हे भैमि दमयन्ति ! अहम ते तव सरस्वती वाणी तस्याः यो रस: माधुर्यम् तस्य य: प्रवाहः स्रोतः तस्य चक्रषु समूहेषु ( सर्वत्र 10 तत्पु० ) निपत्य पतित्वा कति कियतः वारान् कियत्कालपर्यन्तमित्यर्थः भ्रमामि भ्रान्तो भवामि तव कथनं विधिरूपं वा प्रतिषेधरूपं वेति कियत्कालमहं सन्देहदोलास्थितो भविष्यामीत्यर्थः / त्रपाम् लज्जाम् मनाक् ईषत् यथा स्यात्तथा अपाकृत्य दूरीकृत्य कतम इन्द्रादिषु क एकः सुरेषु देवेषु उत्तमः श्रेष्ठः ( स० तत्पु० ) त्वया कृतार्थनीयः कृतार्थः करणीयः वरणीय इति यावत् अद: इदम् म्फुटम् स्पष्टं यथा स्यात्तथा कुरु विधेहि। अभुम् देवमहं वृणे इति नामग्रहणपूर्वकं स्पष्टोकुरु इति भावः / / 51 // व्याकरण-प्रवाहः प्र + Vवह् + घन ( भावे ) / कत्यदः नारायण