________________ नवमः सगः 435 तत्प्रति आदर-बुद्धया श्रुतम् , इदं देवेषु मद्नुरागविषयकमिति कृत्वा अनादरात् न श्रुतमिति भावः / / 60 // ___व्याकरण--वचस: उच्यते इति Vवच + असुन्, सप्तमी के स्थान में सम्बन्ध-विवक्षा में षष्ठी / सुरः इसके लिये पीछे 5 / 34 देखिये / आरोप: आ+ रुह् णिच् +घञ् ( भावे ) / भाषितम्/भाष + क्त ( भावे ) / अनुवाद-"हथेली के मध्य एक कपोल और कान रखे उस ( दमयन्ती) ने इस प्रकार उस ( नल) के द्वारा कही उस स्पष्ट बात को, उसकी वाणी के प्रति आदरभाव के कारण तथा देवताओं के प्रति उसकी ओर से अनुराग रखे जाने की बिडम्बना के कारण, सुना भी है और नहीं भी सुना है / / 60 / / टिप्पणी नलाकार वाले दूत की वाणी में बड़ी मिठास थी, जिसे सुनने को वह लालायित एवं उत्सुक हो रही थी किन्तु वह पातिव्रत्यधर्म के विरुद्ध अंट संट बोलता जाता था कि वह देवताओं को चाहती हैं, जिससे वह खीझ जाती थी इसलिए वह उसकी बातें सुनती भी थी, और नहीं भी सुनती थी। एक कान हथेली से दब गया था, इसलिए दूत की बुरी बात सुन नहीं रही थी लेकिन जो दूसरा कान पृथक् था, उससे वह मीठी बातें सुन रही थी। कवि का यह आशय प्रतीत होता है, किन्तु यह संगत नहीं होता क्योंकि कान जो भी हो बायां या दायां वह बुरा-भला दोनों ही सुनता है। वह किसी की सुनी और किसीकी अनसुनी करे यह संभव नहीं। इसका समाधान नारायण यह करते हैं-'इन्द्रियपाटवाच्छतम्, अनङ्गीकारान्न श्रुतमिति भावः' उन्होंने 'अश्र तम्' का अर्थ अनङ्गीकार करके सुनी अनसुनी कर दी यह अर्थ किया है। हमारे विचार से 'स्फुटम्' शब्द को उत्प्रेक्षा-वाचक मान लिया जाय तो यह कल्पना हो जाएगी कि मानो दबे कान से उसने बुरी बात नहीं सुनी खुले कान से मीठी बात सुनी। पिर कोई अनुपपत्ति नहीं रहेगी। हमारी तरफ से यहाँ उत्प्रेक्षा है। आदर और बिडम्बना के साथ श्रुतम् , और 'अश्रुतम्' का यथासंख्य अन्वय होने से यथासंख्यालंकार हैं। 'श्रुतं श्रुतं' में छेकानुप्रास है। 'अश्रुतम्' में निषेध की प्रधानता होने से समास में उसकी विधेयता चली गई, अतः विधेयाविमर्श दोष बन रहा है। यहाँ 'श्रुतं च न श्रुतं च' होना चाहिए था // 60 //