________________ नवमः सर्गः 422 याणां गोत्रे कुले ( 10 तत्पु० ) जन्म उत्पत्तिः ( स० तत्पु० ) यस्याः तथाभूतायाः (ब० वी० ) ते तव मनोरथः अभिलाषः तम् ओजस्विनम् तेजस्विनम् अग्निदेवम् विना अन्तरेण अन्यतः अन्यत्र कथम केन प्रकारेण वलते गच्छति न कथमपीति काकुः कुले उत्पन्नत्वात् तथापि तेजस्वित्वम् स्वाभाविकम् / अग्निरपि तेजस्वी भवतीति त्वया तेजस्विन्या तेजस्वी अग्निदेव एव कामयितव्य इत्येष परमार्थो मया ज्ञात एवेति भावः // 54 / / व्याकरण-अनुरज्यसे—अनु + Vर ( दिवा० ) + लट् विलासिनि ! विलासवतीति वि + - लस् + घिनुण + ङीप् / सम्बो० तत्त्वम् तस्य भाव इति तत् + त्व। क्षत्रियः क्षत्रस्यापत्यमिति क्षत्र + घ, घ को इय / क्षत्र: 'क्षतात् किल. त्रायते' इति कालिदासः,। ओजस्विनम् ओजोऽस्मिन्नस्तोति ओजस् + विन् (मतुबर्थ ) / अन्यतः अन्य + तसिल ( सप्तम्यर्थ ) / ___ अनुवाद-हे विलासिनी ! तुम्हारा स्वयं ही अग्नि से अनुराग है-यह सचाई मैंने जान ली है। कारण यह कि तुम-जिसका जन्म क्षत्रिय-कुल मे हो रखा है-उस तेजस्वी ( अग्नि) के सिवा दूसरे को कैसे चाहोगी? // 54 // टिप्पणी-विद्याधर अग्नि पर चेतन-व्यवहार-समारोप मान कर यहाँ समासोक्ति कह रहे हैं / जो हम नहीं समझ पा रहे हैं। क्योंकि हम पीछे स्पष्ट कर आए हैं अग्नि, सूर्य आदि देवता स्वयं चेतनरूप हैं, तभी तो दमयन्ती को ब्याहने आ रहे हैं। देदीप्यमान जड़ ज्वालापुञ्ज आदि तो उनके कार्य-देह हैं। जैसे यास्काचार्य ने बताया है। हाँ, सम का सम के साथ योग बताने से समालंकार हो सकता है। मल्लिनाथ वाक्यार्थों में परस्पर कार्यकारण भाव मानकर काव्यलिङ्ग कह रहे हैं. जो ठीक ही है। 'बल' 'विला' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनप्रास है // 54 // त्वयैकसत्या तनुतापशङ्कया ततो निवत्यं न मनः कथंचन / हिमोपमा तस्य परीक्षणक्षणे सतीषु वृत्तिः शतशो निरूपिता॥ 55 // अन्वयः-एकसत्या त्वया तनु-तापशङ्कया ततः कथंचन मनः न निवत्यम् / परीक्षण-क्षणे तस्य वृत्तिः शतशः हिमोपमा निरूपिता। टीका--एका मुख्या चासौ सतो पतिव्रता तया (कर्मधा० ) तनोः स्वशरी-- रस्य तापः दाहः (10 तत्पु० ) तस्मात् शङ्का भयम् तया (पं० तत्पु० ) शरीर