________________ नैषधीयचरिते कति अदः पदच्छेद करके कति शब्द को अध्याहृत 'वारान्' से जोड़कर काला• त्यन्त-संयोग में द्वितीया मान रहे हैं जब कि मल्लिनाथ 'कत्यदः' को समस्त पद मानकर कति कियन्ति अमूनि चक्राणि यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा-यों क्रिया विशेषण मानते हैं। त्रपाम् Vत्रप + अ + टाप / सुर इसके लिए 5 / 34 देखिए / कृतार्थनीयः कृतः अर्थः प्रयोजनं येनेति कृतार्थः तं करोतीति कृतार्थ + णिच् + अनीय ( नामधातु)। अनुवाद-“हे दमयन्ती! तुम्हारी वाणी के माधुर्य के प्रवाह के चक्करों में पड़ कर कब तक मुझे घूमते रहना है? कुछ लजा त्यागकर यह स्पष्ट कर दो कि वह कौन-सा देवश्रेष्ठ है, जिसे तुम बरने जा रही हो" // 51 // टिप्पणी नल दमयन्ती के नकारात्मक कथन को सकारात्मक मानकर यह अनुरोध करते लग रहे हैं कि वह उस देव का नाम ले, जो उसे पसन्द है। वैसे 'सुरोत्तम' तो इन्द्र ही होता है अतः उसका बहुतो के साथ प्रयुक्त होने वाला कतमः विशेषण असंगत-सा लग रहा है, किन्तु कवि का अभिप्राय यहाँ उस को ही उत्तम बताता है, जिसे दमयन्ती पसन्द कर लेगी। सरस्वती केषु--मल्लिनाथ इस समस्त पद को श्लिष्ट मानते हैं और सरस्वती से नदी विशेष, रस से जल, और चक्र से आवर्त भी लेते हैं। उनके अनुसार अर्थ यह होगा-सरस्वती ( वाणी ) रूपी सरस्वती ( नदी) के रस ( माधुर्य ) रूपी जल के प्रवाह के चक्रों ( समूहों ) रूपी आँखों में इस तरह दो बिभिन्न सरस्वती आदि का श्लेषमुखेन अभेदाध्यवसाय होने से यहाँ भेदे अभेदा. तिशयोक्ति बनेगी। विद्याधर भी श्लेष ही कह रहे हैं। शब्दालङ्कार वृत्त्यनुप्रास है / कत्यदः-नारायण ने 'अदः' पद को श्लोक के उत्तरार्ध के साथ जोड़ा है, किन्तु ऐसी व्याख्या में अर्धान्तरैकपदता दोष बन रहा है, अतः मल्लिनाथ की ही व्याख्या ठीक है / / 51 // मतः किमैरावतकुम्भकैतवप्रगल्भपीनस्तन दिग्धवस्तव / / सहस्रनेत्रान्न पृथग्मते मम त्वदङ्गलक्ष्मीमवगाहितुं क्षमः // 52 // अन्वयः-(हे भैमि ) ऐरावत.. धवः तव मतः किम् ? त्वदङ्गलक्ष्मीम् अवगाहितुम् सहस्रनेत्रात् पृथक् मम मते न क्षमः ( अस्ति ) / टीका- ( है भैमि ) ऐरावतस्य सुरगजस्य कुम्भयोः गण्डस्थलयोः कैतवेन