________________ नवमः सर्गः टिप्पणी-यहाँ विद्याधर दूत की कोयल से तुलना में स्पष्ट उपमा को अनदेखी करके 'अत्र छेकानुप्रासोऽलंकारः' कह गए हैं। छेक "पिकः प्रकोपितः' में तो नहीं, 'डम्' 'डिम्' में ही हो सकता है क्योंकि आगे 'ब भ' विजातीय वर्ण आ जाते हैं // 38 // अहो मनस्त्वामनु तेऽपि तन्वते त्वमप्यमीभ्यो विमुखीति कौतुकम् / क्व वा निधिनिर्धनमेति किंच तं स वाक्कवाटं घटयनिरस्यति // 39 // अन्वयः-( हे दमयन्ति !) ते अपि ( देवाः ) त्वाम् अनु मनः तन्वते इति / अहो! त्वम् अपि अमीभ्यः विमुखी इति कौतुकम् / निधिः निर्धनम् क्व वा एति किञ्च स वाक्-कपाटम् घटयत् ( क वा ) निरस्यति ? टीका-(हे दमयन्ति ! ) ते इन्द्रादयो देवा अपि त्वाम् मानुषीम् अनु. उद्दिश्य मन: चेतः तन्वते कुर्वते, देवता अपि सन्तो मानुषीम् त्वामभिलषन्तीत्यर्थः अहो ! आश्चर्यम् त्वम् मानुषी अपि अमोभ्यः एतेभ्यो देवेभ्यः विमुखी पराङमुखी इति कौतुकम् आश्चर्यम्, मानुषो सत्यपि देवान् उपेक्षसे इति भावः ! निधिः शेवधिः लक्ष्मीरिति यावत् निर्धनम् दरिद्रम् क्व कुत्र वा एति आगच्छति ? न छापीति काकुः, किञ्च स दरिद्रः वाक वाणी एव कपाटः अरर: तम् षटयन् संयोजयन् क्व वा निरस्यति निःसारयति ? गृहे आगच्छन्तीम् लक्ष्मीम् दृष्ट्वा मा मद्गृहे मागच्छेत्युक्त्वा क को निषेधति ? न कापीति काकुः // 39 // व्याकरण-विमुखी विरुदं मुखं यस्याः ( प्रादि ब० वी० ) वि + मुख + डीप कौतुकम् कुतुकम् एवेति कुतुक + अण ( स्वार्थे ) / निधिः नि+Vधा+ कि / घटयन्Vघट् + णिच् + शतृ / _____ अनुवाद- ( हे दमयन्ती!) एक वे ( देव ) भी हैं, जो तुम्हारी ओर मन लगा रहे है-कितनी आश्चर्य की बात है। एक तुम भी ( मानुषी). हो, जो उनकी ओर मुंह फेरे हुई हो-यह भी आश्चर्य है। खजाना कंगाल के पास कहीं आता है ? और ( आता है, तो) वह कहाँ बाणीरूपी दरवाजा बन्द करके हटा देता है ( कि मेरे यहां मत आओ)? // 39 // टिप्पणी-देवताओं के आगे मानुषी का भला क्या महत्त्व है। उनके लिए वह तो एक तुच्छ प्राणी है। उसको चाहने में देवताओं की गिरावट हो