________________ 41. नैषधीयचरिते हैं बाद को उन पर भाष्य किये गये हैं। भाष्यकार सूत्रों का ही विवरण और समर्थन करते हैं न कि खण्डन अथवा दोषारोपण / इसी तरह हे दूत तुम भी देवताओं के आगे मेरी थोड़े ही शब्दों में कही बातों का विवरण देते हुए, समर्थन ही करना, मेरे विरोध में न बोलना / यहाँ भाषित पर सूत्रत्वारोप होने से रूपक है। 'तरी' 'तरम्' में छेक बन्दधृता 'बन्दधृता' में यमक अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 37 // निरस्य दूतः स्म तथा विजितः प्रियोक्तिरप्याह कदृष्णमक्षरम् / कुतूहलेनेव मुहुः कुहूरवं विडम्व्य डिम्भेन पिकः प्रकोपितः // 38 // अन्वयः-तथा निरस्य विसजितः दूतः प्रियोक्तिः अपि ( सन् ) डिम्भेन कुतूहलेन मुहुः कुहू-रवम् विडम्ब्य प्रकोपितः पिकः इव कदुष्णम् अक्षरम् आह स्म / टीका-तथा पूर्वोक्त-प्रकारेण निरस्य प्रत्यादिश्य परास्तं कृत्वेत्यर्थः विसजितः गन्तुमनुमतः दूतः नलः प्रिया मधुरा उक्ति: वचनम् ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) अपि सन् डिम्भन बालकेन ( 'डिम्भः पृथकः शावक: शिशुः' इत्यमरः) कुतूहलेन कौतुकवशात् कुहू इत्यात्मक रवम् शब्दम् विडम्ब्य अनुकृत्य प्रकोपितः प्रकोपम् प्रापितः पिकः कोकिल: इव कदुष्णम् ईषदुष्णम्, सन्तापकारकम् परुषमिति यावत् अक्षरम् शब्दान् वाणीमित्य र्थ: आह स्म अकथयत् // 38 // व्याकरण-निरस्य निर् + अस + ल्यप् / विसर्जितः वि + V सृज + णिच् + क्त ( कर्मणि ) / विडम्ब्या/बिडम्ब ( चुरादि ) धातु से पूर्व अनन् न होने से क्त्वा को ल्यप् व्याकरण विरुद्ध है, विडम्बयित्वा ही होना चाहिये था। प्रकोपितः प्र + /कुप् + णिच् + क्त ( कर्मणि ) कदुष्णम कु + उष्णम् कु को कद् आदेश / आह स्म/ + लट्, विकल्प से आह आदेश और भूत अर्थ में स्म / अनुवाद-इस तरह परास्त करके विदा किया हुआ दूत मधुर-वाक् होता हुआ भी कुछ गरम शब्द बोल पड़ा जैसे कि कुतूहल-वश बार-बार 'कु हूँ-कु हूं ध्वनि की नकल उतार कर बालक द्वारा कुपित की हुई कोयल मधुर-वाक् होती हुई भी कुछ कठोर वोलने लग जाती है // 38 //