________________ नवमः सर्गः 'करभोरु !' वदे ज्ञानपर्वकं कथयामि / इमे लोकाः त्वाम् करभवत् ( करभागविशेषवत् ) ऊरू यस्या इति व्युत्पत्ति-पूर्वकं सम्बोध्य 'करभोरु !' कथयन्तु, अहं तु 'करभोरु !' शब्दस्य करभात् ( उष्ट्रात् ) मूर्खतायाम् उरुम् ( अधिकतराम् ) इति व्युत्पत्त्या 'करभोरु / ' एवं त्वाम् सम्बोधयिष्यामीति भावः // 43 // व्याकरण- अभिलाषुका अभि +Vलष + उकन- (ताच्छील्ये) 'न लोकाव्यय' से षष्ठी-निषेध 'गम्यादीनामुपसंख्यानम्' वातिक से समास / विदुषी Vविद् + शतृ, शतृको वस् + ङीप् / बुवा ब्रवीतीति / + अच् + टाप् समास में 'पी' को ह्रस्व, निपातन से ब्र को न गुण हुआ न वच आदेश / करभोर ! ब० बी० में 'उरुत्तरपदादौपम्ये' से ऊङ् प्रत्यय और पञ्चमी तत्पु० में 'ऊडुते' ऊङ् प्रत्यय करके नदी संज्ञक होने से सम्बोधन में ह्रस्व / वदे वद् से ज्ञानार्थ में आत्मने पद / ___अनुवाद-"इन्द्र को छोड़कर नल-नामक तृण-जैसे तुच्छ नल ( राजा) को चाहने वाली तथा अपने को बुद्धिमती कहती हुई तुम्हें क्यों लज्जा नहीं आती ? इसी कारण, ओ करभोरु ! ( हाथ के भागविशेष की तरह कोमल जांघोंवाली ) मैं तुम्हें गन्ने की उपेक्षा किये शमी ( के काँटों) में रमे हुए करभ ( ऊंट ) से अधिक ( मूर्ख) जान-बूझकर कह रहा हूँ // 43 // टिप्पणी-यहां कवि ने 'करभोरु' शब्द को व्यथं रखकर दमयन्ती पर कटु व्यङ्गय कसा है। 'करभोरु' का अर्थ कवि लोग 'करभ-हाथ की छोटी अंगुली से लेकर कलाई तक का क्रमशः अधिकाधिक चौड़े, गोल-गोल कोमल भाग की तरह ऊरु - जांघों वाली करते हैं किन्तु नल दमयन्ती के सम्बन्ध में इस अर्थ से सन्तुष्ट नहीं होते। उनका कहना है कि मैं भी तुम्हें 'करभोरु' कहूँगा लेकिन उसकी व्याख्या करूंगा-'करभ = ऊँट से भी उरु = अधिक मूर्ख / ऊंठ मीठा गन्ना छाड़कर शमी वृक्ष के काटे खाता है / वह बड़ा मूर्ख ह। तुम अपने को विदुषी तो कहती हो, किन्तु उससे भी अधिक मूर्ख हो, जो इन्द्र देवता का छोड़कर तुच्छ नर-नल को चाह रही हो / सहेतुक होने से काव्यलिङ्ग, और नल शब्द में श्लेष है। 'नला, नल' 'पेक्षितेक्षोः, भोरु भोरि में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रात है // 43 //