________________ 414 नैषधीयचरिते अपि कथम् केन प्रकारेण वा सम्यक् सुतराम् न शम्यते निवर्त्यते अपितु निवर्त'यितुमर्हः / अयं भावः अपत्य-गतो यत्किञ्चिद्विषयको दुराग्रहो दोषः पित्रादिना निराकरणीयो भवति यथा सूर्यशनैश्चरादि दुष्टग्रहकृतो दोषो बृहस्पतिना निरा. 'क्रियते किन्तु तव देवावरणविषयको दुराग्रहः ते पित्रादिना न निराक्रियते इति महदाश्चर्यम् // 41 // व्याकरण-मानवी मनोरपत्यं स्त्रीति मनु + अण् + ङीप् (स्त्रियाम् ) / दिवौकसम् द्यौः ओकः = निवासस्थानम् यस्येति (ब० वी०) दिव् + ओकस् पृषोदरादित्वात् साधुः। नवीनम् नव एवेति नव + ख ( स्वार्थे ) ख को ईन / अश्रावि श्रु + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / हितेन धा + क्त, धा को हि / सम्यक् सम् + / अञ्च + क्विन्, सम् को समि आदेश। शम्यते शम् + णिच + लट ( कर्मवाच्य ) / ___ अनुवाद-"मानुषी देवता को नहीं चाहती-यह मैंने तुम्हारे मुंह से नयी बात सुनी है। यह तुम्हारा दुर्ग्रह दोष ( दुराग्रह की बुराई ) हितैषी गुरु ( माता-पिता आदि ) द्वारा क्यों दूर नहीं की जाती है जैसे कि दुष्ट दुर्ग्रहदोष ( शनि आदि दुष्ट ग्रहों का दोष ) गुरु (बृहस्पति ) द्वारा दूर किया जाता है ?" // 41 // टिप्पणी-नल के कहने का भाव यह है कि अपने बच्चे में यदि किसी तरह का जिद्दीपन की खराबी दिखाई पड़े, तो मां-बाप का कर्तव्य है कि वह उसे दूर कर दें। देवेन्द्र को न वरने की तुम्हारी अनुचित जिद मां-बाप को हटा देनी चाहिए। इस बात को कवि श्लिष्ट भाषा का प्रयोग करता हुआ गुरु ( बृहस्पति ) से तुलना कर रहा है अर्थात् कि कुर्वन्ति ग्रहाः सर्वे यस्य केन्द्र बृहस्पतिः' इस ज्योतिष-सिद्धान्त के अनुसार जिस प्रकार बृहस्पति दुष्ट ग्रहों के दोष का निवारण कर देता है, वैसे ही तुम्हारे गुरुजन को भी तुम्हारे दुष्ट ग्रह ( अनुचित हठ ) का निवारण कर देना चाहिए, लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैं-यह आश्चर्य की बात है। विद्याधर यहाँ श्लेषालंकार कह रहे हैं लेकिन-जैसा कि मल्लिनाथ का कहना है हमारे विचार से भी प्रतीयमान दूसरे अप्रस्तुत अर्थ में उपमा-ध्वनि ही है। नवी, नवी में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 41 //