________________ 412 नैषधीयचरिते है। दूसरी ओर देखिए तो वह तुच्छ मानुषी होती हुई भी देवताओं को ठुकरा रही है। देवताओं की पत्नी होना, मर्त्यलोक से उत्तम स्वर्गलोक का आनन्द प्राप्त करना किसे न भायेगा? लेकिन दमयन्ती को यह स्वीकार नहीं यह तो ऐसा है जैसे कोई आती लक्ष्मी को लात मार दे। विद्याधर 'अत्र हेत्वलंकारः' कह रहे हैं किन्तु मल्लिनाथ पूर्वाधं और उत्तराधं-गत दोनों वाक्यों में परस्पर बिम्बप्रतिबिम्बभाव मान रहे हैं अर्थात् इन्द्रादि का तुम्हें चाहना दरिद्र के पास खजाना आ जाने के समान और तुम्हारा उनको ठुकराना आते खजाने को दरिद्र द्वारा लात मार देने के समान है, अतः दृष्टान्त है। हमारे विचार से अर्थान्तरन्यास है, 'मन' 'मनु' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 39 / / सहाखिलस्त्रीषु वहेऽवहेलया महेन्द्ररागाद्गुरुमादरं त्वयि / कथं न वा श्रेयसि संमुखेऽपि तं पराङ्मुखी चन्द्रमुखि ! न्यवीवृतः॥४०॥ अन्वयः-हे चन्द्रमुखि / महेन्द्ररागात् अखिल-स्त्रीषु अवहेलया सह त्वयि गुरुम् आदरम् वहे / ईदृशि श्रेयसि संमुखे ( सति ) अपि त्वम् पराङ्मुखी ( सती) तम् न्यवीवृतः // 40 // टीका... चन्द्रवत् मुखम् वदनम् (उपमान पूर्वपद तत्पु० ) यस्याः तत्सम्बुद्धी (ब० वी० ) हे दमयन्ति ! महेन्द्रस्य महान् चासो इन्द्रः तस्य (कर्मधा०) सुरेन्द्रस्य त्वयि अनुरागात् प्रणयात् कारणात् (10 तत्पु० ) अखिलाः सर्वाः च ताः स्त्रियः महिलाः तासु ! कर्मधा० ) अवहेल्लया उपेक्षया सह अहम् त्वयि गुरुम् महान्तम् आदरम संमानम् बहे धारये, महेन्द्रस्त्वयि अनुरज्यते न त्वन्यास्विति त्वं परमधन्यासीति मत्वा त्वाम् प्रति मे महान् आदरभावः अस्तीत्यर्थः / ईदृशि एतादृशि श्रेयसि पतित्वेन इन्द्रप्राप्तिरूपकल्याणे संमुखे अग्रे समुपस्थिते सति अपि त्वम् पराङ्मुखी विमुखी अस्वीकुर्वाणति यावत् सती तम् मे त्वयि गुरुम् आदरम् न्यवीवृतः निवतितवती तादृशं दुर्लभम् महत् कल्याणम् दुत्कुर्वत्यां दुर्मत्यां त्वयि मे आदरभावो लुप्तोऽस्तीति भावः // 40 // व्याकरण-रागात्/रञ् + घञ् ( भावे ) नलोप, कुत्व / अवहेलया अव + /हेल + अ + टाप् / ईदृशि इदम् + /दृश् + क्विन् स० / श्रेयसि अतिशयेन प्रशस्यमिति प्रशस्य + ईयसुन्, श्रादेश / पराङ्मुखी पराच् + मुख + ङीप् / न्यवीवृत: नि + वृत् + णिच् + लुङ् /