________________ 180 नैषधीयचरिते चकास्ति भाति / अङ्गुष्ठ द्वारा ग्रहणेन संपीडितः चिबुकमध्यभागः किमपि अधोगत इव प्रतीयते इति भावः / / 51 // व्याकरण-विधि: विदधाति ( जगत् ) इति वि+Vधा + कि / समाप्तौ सम् + आप् + क्तिन् ( भावे) / उन्नमय्य उत् +/नम् + णिच् + ल्यप् , अयादेश / आस्थम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए / धृतिः धृ + क्तिन ( भावे ) / उद्भवः उत् + Vभू + अप् ( भावे)। यन्त्रणा यन्त्र + णिच् + युच् , यु को अन, न को ण + टाप् / अनुवाद-विधाता ने सौन्दर्य ( निर्माण.) की समाप्ति पर ( दमयन्ती का) मुख ऊपर उठाकर देखा होगा क्या? तभी तो कुछ नीचे गई ठुड्डी का अंगुलि द्वारा दबाये जाना जैसा लग रहा है / 51 // टिप्पणी-वाणी-वर्णन के वाद नल अब दमयन्ती की ठुड्डी का वर्णन कर रहा है। विधाता ने उसके मुख के निर्माण पर अपना सारा सौन्दर्य लगा दिया, तो आत्म-तुष्टि हेतु जैसे कि सभी कलाकार किया करते हैं—उसने सोचा कि देखू मुख कितना सुन्दर बना है। उसने हाथ से मुख उठाया, तो कोमल होने के कारण अंगूठे का दबाव पड़ने से छुड्डी कुछ बीच में धंस-सी गई लग रही है / वीच में कुछ धंसी ठुड्डी सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभ लक्षण रूप में मानी गई है / यह कवि की कल्पना है, अतः उत्प्रेक्षा है, जिसके साथ अनुमान भी है / 'षमा' 'समा' में ( षसयोरभेदात् ) छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। प्रियामुखीभूय सुखो सुधांशुर्जयत्ययं राहुभयव्ययेन / इमां दधाराधरबिम्बलीलां तस्यैव बालं करचक्रबालम् / / 52 // अन्वयः-अयम् सुधांशुः प्रियामुखीभूय राहुभयव्ययेन सुखी सन् जयति / तस्य एव करचक्रवालम् इमाम् अधरविम्बलीलाम् दधार / ___टीका-अयम् एष सुधा अमृतम् अंशुषु किरणेषु यस्य तथाभूतः ( ब० बी० ) चन्द्र इत्यर्थः प्रियायाः प्रेयस्याः अस्याः दमयन्त्याः अमखं मुखं सम्पद्यमानं भूत्वेति मुखीभूय राहोः विधुन्तुदात् भयस्य (पं० तत्पु० ) व्ययेन अपगमनेनेत्यर्थ: (प० तत्पु० ) सुखी निश्चिन्तः सन् जयति सर्वोत्कर्षेण वर्तते / तस्य सुधांशोः एव कराणाम् चक्रवालम् उदयकालीन लोहित-रश्मिसमूह इत्यर्थः ( 10 तत्पु० ) इमाम् पुरः प्रत्यक्षं दृश्यमानाम् अवरः बिम्बमिव ( उपमित तत्पु० ) तस्य लोलाम् विलासम् (10 तत्पु० ) वघार दधौ /