________________ सप्तमः सर्गः 247 व्याकरण-चतुष्टयम् चत्वारः अवयवाः अत्रेति चतुस् + तयप् / कला के = आनन्दे लीयते आत्माययेति ( पृषोदरादित्वात् साधुः / ) यथा चोक्तम्'लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला' / वासम् / वस् + घञ् ( भावे ) / अनुवाद--जो ( दमयन्तो ) यश, पैरों के अंगूठों के दो नाखून और मुखइन चार चन्द्रमाओं को धारण कर रही है, उस इ स सुन्दरी ( दमयन्ती ) में चौसठ कलायें भला क्यों न वास करें ? टिप्पणी--इस श्लोक में कवि पैरों के अंगूठों का वर्णन कर रहा है / दमयन्ती का सौन्दर्य-विषयक यश श्वेत चन्द्र-जैसा फैला हुआ है; दो पैरों के दो गोलाकार श्वेत नख और मुख भी चन्द्र-जैसे ही हैं, इसलिए उनपर कवि चन्द्रत्वारोप कर रहा है / प्रत्येक पूर्ण चन्द्र की कलायें सोलह-सोलह होती हैं, इस तरह दमयन्ती के भीतर चारों चन्द्रमाओं की कलाओं को मिलाकर कुल चौसठ कलायें निवास कर रही हैं। इन्हीं कलाओं-चन्द्रमाओं के चौसठ अशों ( Digits ) को ही कवि चौसठ गीतवाद्य आदि कलाओं ( Arts ) के रूप में लेकर भैमी को सर्वकला-निपुण बता रहा है। यश आदि पर पूर्णचन्द्रत्वारोप में रूपक और दो भिन्न भिन्न कलाओं में अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। सृष्टातिविश्वा विधिनैव तावत्तस्यापि नीतोपरि यौवनेन / वैदग्ध्यमध्याप्य मनोभुवेयमवापिता वाक्पथपारमेव // 108 // अन्वयः-विधिना एव इयम् तावत् अतिविश्वा सृष्टा, यौवनेन तस्य अपि उपरि नीता, मनोभुवा ( च ) इयम् वेदग्ध्यम् अध्याप्य वाक्पथपारम् एव अवापिता। टोका-विधिना ब्रह्मणा एव इयम् एषा दमयन्ती तावत् आदी विश्वम् संसारम् अतिक्रान्तेति अतिविश्वा ( प्रादि तत्पु० ) सृष्टा रचिता, यौवनेन तारुण्येन तस्य अतिविश्वसर्गस्य अपि उपरि उत्कर्षे इत्यर्थः नीता प्रापिता, यौवनेन शैशवसौन्दर्यापेक्षया अधिकसौन्दर्य प्रापितेत्यर्थः, तदनन्तरम् मनः भूः उत्पत्तिस्थानं यस्य तथाभूतेन ( ब० वी० ) अथवा मनसो भवतीति तथोक्तेन ( उपपद तत्पु०) मनसिजेन कामेनेति यावत् इयम् एषा दमयन्ती वैदग्ध्यम् प्रागल्भ्यम् सर्वकार्यनेपुण्यमिति यावत् अध्याप्य शिक्षयित्वा वाचः वाण्याः पन्थाः मार्ग इति वाक्पथः