________________ अष्टमः सर्गः 329 टिप्पणी-“महादेव के नयन में रहकर इस अग्नि ने मुझे जलाया हैइसलिए यह मेरा शत्रु है। मुझे अवश्य इसका बदला लेना है'-यह सोच कर काम भी दमयन्ती के नयन में रहकर अग्नि को जलाता हुआ अब वैर-निर्यातन कर रहा है। अपकार करने पर यदि प्रत्यपकार न किया जाय तो यह एक प्रकार का ऋण ही होता है। प्रत्यपकार करने पर ऋणमुक्ति हो जाती है / भाव यह है कि दमयन्ती के नयन कामोद्दीपक हैं, उन्हें देख विरह में अग्निदेव कामपीड़ित हो रहा है। विद्याधर यहाँ व्याघात अलंकार कह रहे हैं। व्याधात वहाँ होता है जहाँ जिसने जिस तरह जो काम किया है, दूसरा उसी तरह उसका उल्टा कर दे / लेकिन यहाँ ऐसी बात नहीं है / अग्नि ने काम को जलाया है, तो अब काम भी अग्नि को जला रहा है। दोनों बराबर एक-सा काम कर रहे हैं। यहाँ उल्टा-उल्टा काम नहीं हो रहा है। हाँ, यदि ऐसी बात होती कि नयन ने काम को जलाया है, तो नयन ही काम को जिला रहा है, तो व्याघात की बात थी भी। हाँ यदि व्याघात की ध्वनि मानें तो ठीक है / इसलिए हमारे विचार से यह अन्योन्यालंकार का विषय है। 'पुरा' 'पुरा' में यमक, ‘यना' 'येन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सोमाय कुप्यन्निव विप्रयुक्तः स सोममाचामति हूयमानम् / नामापि जागति हि यत्र शत्रोस्तेजस्विनस्तं कतमे सहन्ते // 74 / / अन्वयः-विप्रयुक्तः स सोमाय कुप्यन् इव हूयमानम् सोमम् आचामति, हि यत्र शत्रो: नाम अपि जागति कतमे तेजस्विनः तम् सहन्ते ? टीका-विप्रयुक्तः त्वविरहितः स अग्निः सोमाय चन्द्राय कुप्यन् क्रुध्यन् इव हूयमानम् हवीरूपेण दीयमानम् सोमम् सोमाभिधेयलताविशेष-रसम् आवासति पिबति / आत्मपीडके चन्द्रे अग्ने: कोपः उचितः एव अपराधित्वात्, किन्तु कुपितः स निरपराधम् सोमरसं पिबतीति कीदृशोऽयं न्याय इत्यत आह--हि यतः यत्र यस्मिन् जने शत्रोः वैरिणः नाम संज्ञा अपि जागति प्रकाशते कतमे बहुषु के तेजस्विनः ओजस्विनः तम् जनम् सहन्ते सोढुम् शक्नुवन्ति, न कतमेप्रीति काकुः / तेजस्विनः शत्रुनामापि न सहन्ते किं पुनः शत्रुमिति भावः / / 74 // __व्याकरण-विप्रयुक्तः वि+प्र + युज् + क्त ( कर्मणि ) कुप्यन् कुप् + शतृ ('क्रुध-द्रह०' 1 / 4 / 37 से चतुर्थी ) / हूयमानम् /हु + शानच (कमवाच्य)। कतमे किम् + डतमच / तेजस्विनः तेजः एषामस्तीति तेजस् + विन् (मतुबर्थ)।