________________ नैषधीयचरिने स्वम् माक्षिकम् मधु आक्षिपत तिरस्कुर्वत् मधुतोऽपि मधुरमित्यर्थः ईदृशम् प्रतिबन्दीरूपम् स्वम् निजम् वचः वचनम् परेषु इन्द्रादिभिन्नेषु मत्सदृशेषु मा क्षिप मा प्रयुक्ष्व मा वादोरिति यावत् अर्थात् कुलाङ्गनाचारमनुरुध्य तव परपुरुषेषु वचनाप्रयोगः समुचित एव त्वया तैः न संभाषितव्यमिति यावत्, अहं तु न परपुरुषः, प्रत्युत त्वदीय एवेति भावः // 17 // __ व्याकरण-प्रतिवन्दी प्रतिगता वन्दी इति (प्रादि स० ) / आह स्म/ बू+ लट्, विकल्प स ब का आह आदेश और भूत में स्म / वामाक्षि / ब० बी० में अक्षिन् को षच, पित्वात् ङीष नदीत्वात् ह्रस्व / माक्षिकम् मक्षिकाभिः कृतमिति मक्षिका + अण्। अनुवाद-वह ( नल ) प्रिया के वचनों की हृदय से सराहना करके (.उसके ) 'मियाँ की जूती, मियाँ के सिर' वाले तर्क से निरुत्तर हो मुस्कान के साथ उसको बोला-"सुलोचने ! मैं कहता हूँ कि तुम (माधुरी में) शहद को मात कर देने वाले अपने ऐसे वचन पर-पुरुषों को ( बेशक ) मत बोलो" // 17 // टिप्पणी-दमयन्ती के 'प्रतिबन्दी'- उत्तर ने नल की बोलती बन्द कर दी। ठीक है, कुलाङ्गना का एक अपरिचत से वार्तालाप करना भला कहाँ का शिष्टाचार है। प्रतिबन्दी शब्द वैसे दार्शनिक बाद-विवादों में ही प्रयुक्त होता. है काव्य में बहुत कम अथवा ना के बराबर। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में हम पिछले श्लोक की टिप्पणी में थोड़ा-बहुत लिख आए हैं। उच्चारण में यह शब्द हमें विभिन्न रूपों में अर्थात् प्रतिबन्दो, प्रतिबन्दि, प्रतिवन्दी, प्रतिवन्दि में मिलता है। व्याकरण-स्तम्भ में इसकी व्युत्पत्ति हमने 'प्रतिगता बन्दी' की है। बन्दी शब्द का अर्थ अमरसिंह ने 'प्रग्रहोपग्रहो बन्याम्' बन्धन अथवा पकड़ किया है। वादी जब प्रतिवादी को अपने किसी तर्क से पकड़ लेता है। फाँस लेता है, तो प्रतिवादी भी वैसा ही तर्क देकर वादी को भो फाँस लेता है। इसी बात को दृष्टिगत रखकर चाण्डू पण्डित कहते हैं—'तादृशमेव प्रतिवचनं यत्र वादिनं प्रति क्रियते, सा प्रतिबन्दी नाम उत्तरम्' / ईशानदेव का भी ऐसा-जैसा ही कहना है-'तदुक्त्या तस्यैव दूषणमुत्पाद्यते स तर्कः प्रतिबन्दिः' / ऐसी स्थिति में वादी और प्रतिवादी दोनों एक ही नाव पर सवारहो जाते हैं