________________ नषधीयचरिते अन्वयः-सुराङ्ग "भृतः महेन्द्रस्य हंसा'"श्रियः ह्रदस्य बलाकया इव मया प्रबला विडम्बना कथम् औचिती ? अहो ! टीका-सुराणां देवानाम् अङ्गनाः सुन्दर्यः (10 तत्पु०) शची-रम्भाप्रभृतयः तासां संगमेन सङ्गेन (10 तत्पू० ) शोभते लसतीति शोभी ( उपपद तत्पु० ) तस्य भावः तत्ता ताम् बिभर्ति दधातीति तथोक्तस्य ( उपपद तत्पु० ) सुराङ्गनानां सङ्गमेन शोभमानस्येत्यर्थः महेन्द्रस्य सुरेन्द्रस्य हंसानां मरालानाम् आवल्या श्रेण्या मांसला मांसयुक्ता लक्षणया वृद्धि प्राप्तेत्यर्थः ( तृ० तत्पु० ) श्रीः शोभा ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) बलाकया एकया एव वकस्त्रिया इव ( एकया ) मया दमयन्या प्रबला प्रकृष्टं बलं यस्याः तथाभूता ( प्रादि ब० बी० ) महती विडम्बना उपहासास्पदता कथम् औचिती औचित्यम् अहो आश्चर्यम् ! अनेकहंसश्रेणीशोभितस्य सरोवरस्य एका बलाका यथा परीहास कारणं भवति तथैव अनेक-दिव्यसुन्दरीशोभितस्य इन्द्रस्यापि मया निमित्तेन परिहासः एव लोके स्यादिति महदनौचित्यमिति भावः / / 27 // __ व्याकरण--सुरा इसके लिए सर्ग 5 का श्लोक 43 देखिए / भृतः /भृ + क्विप् ( कर्तरि ) प० / मांसल मांसमस्यास्तीति मांस + लच् (मतुबर्थ) / ह्रद: यास्कानुसार 'ह्रादते' इति ह्राद् + अच् ( कर्तरि ) ह्रस्व निपातित / विडम्बना विडम्ब + णिच् + युच, यु को अन + टाप् / अनुवाद-“यह कैसे उचित हो सकता है कि सुराङ्गनाओं के संग शोभित होता हुआ इन्द्र मेरे कारण इस प्रकार बड़ी भारी विडम्बना-उपहास-प्राप्त कर बैठे जैसे हंस श्रेणी से अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुआ सरोवर ( एक ) बगुली के कारण विडम्बना प्राप्त कर लेता है, आश्चर्य की बात है" // 27 // टिप्पणी-जैसे हंसों की अपेक्षा बलाका हीन होती है, उसी तरह देवलोक की उर्वशी आदि सुन्दरियों के आगे मैं भी कुछ नहीं हूँ। इसलिए मेरे साथ इन्द्र का योग एक विडम्बना-मात्र है, उस का अपना महान् उपहास है। यहाँ इन्द्र की ह्रद के साथ तुलना की गई है, किन्तु ध्यान रहे कि यहाँ दोनों के धर्म भिन्न-भिन्न होने पर भी दृष्टान्तालंकार की तरह उनका परस्पर बिम्बप्रतिबिम्बभाव हो रहा है, अत: उपमा ही है। 'बला' 'वला' में यमक, 'भिताभृतः' में छेक, अन्यत्र वृत्यनुप्रास है // 27 //