________________ नवमः सर्गः दिवरण सम्बन्धी ) बात का विचार तक करने से डरती हूं।' कारण कि मृणाल सूत्र की तरह (क्षण में ही) टूट पड़ने वाली सतीत्व-मर्यादा थोड़ी-सी भी चञ्चलता से भंग हो जाती है / / 31 // टिप्पणी-नल दमयन्ती के मन के भीतर कभी से बैठे हुए हैं। उसमें दूसरे के विचार के लिए स्थान ही कहाँ है ? दूसरे का विचार तक लाने में पातिव्रत्य की मर्यादा भंग हो जायगी मृणाल-तन्तु को जरा छुओ भी अथवा हिलाओ भी तो तत्क्षण ही तड़क कर टूट जाया करती है। यही हाल पातिव्रत्यमर्यादा का भी है / लेकिन प्रश्न किया जा सकता है कि जब नल के साथ अभी पाणि-ग्रहण ही नहीं हुआ है तो पातिव्रत्य कैसे? नहीं, ऐसी बात नहीं। पाणि-ग्रहण आदि शारीरिक विधि-विधान तो उपचार-मात्र होता है। असली बरण तो मानसिक ब्यापार-मनका अर्पण है, जहाँ से पातिव्रत्य की सीमा आरम्भ हो जाती है। जब से दमयन्ती नल को अपना मन दे बैठी है, तब से वे उसके पति हो गए हैं। अब परपुरुष का विचार तक मन में लाते ही पातिव्रत्य-भंग का भय स्वाभाविक ही है। सतीस्थिति की मृणालतन्तु के साथ तुलना करने से उपमा है, किन्तु विद्याधर हेतु अलंकार भी कह रहे हैं लेकिन हमारे विचार से काव्यलिंग है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है // 31 // ममाशयः स्वप्नदशाज्ञयापि वा नलं विलक्यतरमस्पृशद्यदि ! कुतः पुनस्तत्र समस्तसाक्षिणी निजैव बुद्धिर्विबुधैर्न पृच्छयते // 32 // __ अन्वयः-वा मम आशयः स्वप्नदशाज्ञया अपि नलम् विलङ्घय इतरम् यदि अस्पृशत्, ( तर्हि ) तत्र विबुधैः समस्त-साक्षिणी निजा बुद्धिः एव कुतः पुनः न पृच्छयते? ___टीका-वा अथवा मम मे आशयः अभिप्रायः, मनोवृत्तिः मन इतियावत् स्वप्नस्य निद्रायां जायमानस्य अनुभवस्य या दशा अवस्था तस्या आज्ञया आदेशेन अपि स्वप्नावस्थापारवश्येनेत्यर्थः नलम् विलय विहाय इतरम् पुरुषम् यदि अस्पृशत् सम्पर्कमकरोत् तहि तत्र तस्मिन् विषये विबुधैः देवैः इन्द्रादिभिः समस्तस्य सकललोकवृत्तान्तस्य साक्षिणी साक्षात्कारिणी (ष० तत्पु० ) हस्तामलकवत् सकलजगद्-द्रष्ट्रीत्यर्थः निजा स्वीया बुद्धिः धीः एव कुतः कस्मात्