________________ नवमः सगः 4.1 टिप्पणी-यहाँ पूर्व श्लोक की तरह पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के दोनों वाक्यों में परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्त ही है। अपि शब्द से अर्थापत्ति भी बन रही है। यथा-तथा में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 29 // अदो निगद्यैव नतास्यया तया श्रुतौ लगित्वाभिहितालिरालपत् / / प्रविश्य यन्मे हृदयं ह्रियाह तद्विनिर्यदाकर्णय मन्मुखाध्वना / 30 / / अन्वयः-अदः निगद्य एव नतास्यया तया श्रुतो लगित्वा अभिहिता आलि: अलपत्-"(इयम् ) ह्रिया मे हृदयम् प्रविश्य यत् आह, तत् मन्मुखाध्वना विनियंत् आकर्णय / " टाका--अदः इदम् निगद्य कथयित्वा एव नतम् अवनतम् आस्यम् मुखम् ( कर्मधा०) यस्यास्तथाभूतया (ब० वी ) लज्जया नम्रमुख्या तया दमयन्त्या श्रुतौ कर्णे लगित्वा कर्ण निकटे भूत्वेत्यर्थः अभिहिता उक्ता आलि: सखी अलपत् अगदत्-'इयम् एषा मे सखी दमयन्ती ह्रिया लज्जया मे मम हृदयम् मानसम् प्रविश्य प्रवेशं कृत्वा यत् आह कथयति तत् मम मुखम् वक्त्रम् ( 10 तत्पु० ) एव अध्वा मार्गः तेन ( कर्मधा० ) मन्माध्यमेन विनियंत् विनिर्गच्छत् आकर्णय शृणु, लज्जावशात् स्वमुखेन स्वयं कथयितुमशक्ता मन्मुखेन कथयतीति भावः // 30 // व्याकरण-अवः अदस् शब्दका नपुं० द्वि० एकवचन / आस्यम् अस्यते (प्रक्षिप्यतेऽन्नादि ) अत्रेति /अस् + ण्यत् ( अधिकरणे ) / अभिहिता अभि + घा + क्त, धा को हि / विनियंत् वि + निर् + Vइ + शतृ नपुं० द्वि० / अनुवाद-यह कहकर ही सिर नीचे किये उस ( दमयन्ती) के द्वारा कान से लगकर कही गई सखी बोली-“लज्जा के कारण मेरे हृदय में प्रविष्ट हो यह जो बोलती है, उसे मेरे मुख-मार्ग से निकलता हुआ सुनो // 30 // टिप्पणी-यह बेचारी लज्जा के मारे स्वयं तो कुछ नहीं कह सक रही है। कानाफूसी करके मेरे मन में अपने मन की रहस्यात्मक बात इसने रख दी है उसे ही मैं दोहरा रही हूँ। इसमें मेरी अपनी कल्पित बात कोई नहीं है" विद्याधर 'अत्र छेकानुप्रासोऽलंकारः' कह रहे हैं, लेकिन हमें वह कहीं नहीं