________________ नवमः सर्गः 397 अपि इदं किं न स्यात् इत्यर्थः तेषाम् इन्द्रादीनाम् असौ एषा वाक् वचनम् अर्थात् अस्मान् वृणीष्वेति कथं न केन प्रकारेण असावि प्रसूता उत्पन्ना जातेत्यर्थी अहं तुच्छमानवयोन्युत्पन्नास्मि, मां प्रति वरणसंदेशप्रेषणं देवतानां सर्वथाऽनुचितमस्तीति भावः, अथवा विकल्पे ईश्वराः प्रभवः स्वभावेन प्रकृत्या भक्ती (तृ. . तत्पु० ) प्रवणम् नतम् स्वाभाविकभक्तिशीलम् इति यावत् ( स० तत्पु०) जनम् प्रति उद्दिश्य कया वाचा वाण्या मुवम् हर्षम् न उगिरन्ति प्रकटयन्ति ? प्रभवः भक्त्या प्रसन्नीभूय हर्षप्रकटनार्थम् यत्किञ्चित् कथयन्ति तत् उपचार मात्र भवति, न तु तात्त्विकम् / एवं इन्द्रादयोऽपि हर्षे तादृशम् अकथयन्, मवरणेन तेषां तात्पर्यम् तेषां देवत्वात् मम च मानुषीत्वादिति भावः // 26 // व्याकरण- मानुष्यकम् मनुष्य + वन (भावे) वु को अक / असाकि Vसू+लुङ् ( कर्मकर्तरि ) 'अचः कर्मकर्तरि' ( 3!162 ) से विकल्प से चिण् / ईश्वराः ईशते इति / ईश् + वरच् कर्तरि / प्रवणम् प्रकर्षण वणतीति प्र + Vवण + अच् ( कर्तरि ) / मुवम् मुद् + क्विप् ( भाबे ) द्वि० / अनुवाद-"मनुष्यत्व से दूषित हुए इस जन के ( = मेरे ) प्रति उन ( देवताओं ) में वैसी बात ( कि हमारा वरण करो) कैसे उत्पन्न हो गई, भले ही यह उनकी कृपा ही क्यों न हो? अथवा प्रभु लोग स्वभावतः भक्तिविनम्र जनके प्रति क्या-क्या न कहके हर्ष व्यक्त नहीं करते"? // 26 // टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाव यह है कि स्वामि-भक्ति से प्रसन्न हुए बड़े लोग अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने के लिए हँसी-मखौल में भक्तों को कुछ का कुछ बोल देते हैं। हमें उनके कहे के अक्षरार्थ की ओर ध्यान नहीं देना चाहिए। देवता लोग मेरे नमस्कार-योग्य कहाँ / विद्याधर यहाँ उत्प्रेक्षा कह रहे हैं, जो हमारी समझ में नहीं आती। केवल 'नु' शब्द आ जाने मात्र से उत्प्रेक्षा नहीं बना करती, उसके लिए ठोस कल्पना होनी चाहिए। 'नु' शब्द 'कथम्' के साथ यहाँ प्रश्नवाचक ही है। हमारे विचार से पूर्वार्ध विशेष बात की उत्तरार्धगत सामान्य बात द्वारा समर्थन होने से यहाँ अर्थान्तरन्यास है। 'लाञ्छने' 'जने' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, 'मुदमुद्रि' में छेक' अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 26 // . अहो महेन्द्रस्य कथं मयोचिती सुराङ्गनासंगमशोभिताभुतः / हृदस्य हंसावलिमांसलाश्रयो बलाकयेव प्रबला बिडम्बना // 27 //