________________ नवमः सर्गः 389 स्तिमित /स्तिम् ( क्लेदे ) + क्तः ( कर्तरि ) / सुरेषु इसके लिए पीछे सर्ग + लट् ( नामधा० ) / वर्षक: दर्पयतीति /दृप् + णिच् + ण्वुल् ( कर्तरि ) / प्रयाति भविष्यदर्थ में लट् / अनुवाद-"(हे दमयन्ती ! ) तुम रस-प्रवाह से सनी ( अपनी)। ऐसी वाणी को देवताओं के लिए विस्तृत संदेश का रूप नहीं दे रही हो, जो मेरे द्वारा अर्पित हुई काम-संतप्त देवताओं पर दावानल से पीड़ित वन में होने वाली वृष्टि का रूप अपनायेगी?' // 19 // टिप्पणी-दावानल से जल रहे वन को वृष्टि शान्त कर देती है, तुम्हारी सन्देश-वाणी भी बाम-संतप्त देवताओं हेतु वृष्टि बन जायेगी। विद्याधर यहाँ उपमा कह रहे हैं जो हमारी समझ के बाहर हैं। क्योंकि 'सादृश्य हमें कहीं भी दीख नहीं रहा है। वृष्टित्व वृष्टि में ही रहता है, वाणी उसे कैसे प्राप्त कर सकती है। हाँ, असम्भवद्-वस्तु-सम्बन्ध में बिम्बप्रतिबिम्बभाव हो रहा है जो यहाँ निदर्शना बना रहा है। 'दर्प' 'दर्प' तथा 'दावा' 'दाव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है // 19 // यथा यथेह त्वदुपेक्षयानया निमेषमप्येष जनो विलम्बते। रुषा शरव्यीकरण दिवौकसा तथा तथाद्य त्वरते रते: पातः // 20 // अन्वयः (हे दमयन्ति ! ), यथा यथा एष जनः इह अनया त्वदुपेक्षया निमेषम् अपि विलम्बते, तथा तथा रतेः पतिः रुषा दिवौकसाम् शरव्यीकरणे अद्य त्वरते। टीका-यथा-यथा यावद् यावद् एष मल्लक्षणः जनः अहमित्यर्थः इह अत्र त्वत्समापे अनया एतया तव उपेक्षया अवहेलनया औदासीन्येनेतिया बत् निमेषम् क्षणम् अपि विलम्वते विलम्वं करोति तथा तथा तावत् तावत् रते: पतिः कामः रुया क्रोधेन दिवौकसाम् द्यौः स्वर्गः ओक: गृहं येषां तथाभूतानाम् (ब० बी० ) देवानामित्यर्थः ( 'त्रिदिवेशा दिवौकसः' इत्यमरः) शरभ्यीकरणे लक्ष्यीकरणे अद्य अस्मिन् क्षरणे त्वरते त्वरां करोति / देवेषु स्वप्रतिसंदेशदाने उपेक्षया क्रियमाणे क्षणस्यापि विलम्बे देवाः कामशरशरव्यीभवन्तीति भावः // 20 // व्याकरण-यथा यथा वीप्सा में द्वित्व। उपेक्षा उप + Vईक्ष् +अ